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सरकार की नज़र-ए-करम न हुई तो कड़कड़ाती ठण्ड में बेमौत मर जायेगे बेचारे

कानपुर (मो0 नदीम)।
अभी तक ठण्ड से वंचित रहे शहर वासियो को ठण्ड ने अपना अहसास करा दिया हैं। शाम होते ही लोग लिहाफ और कम्बलों में दुबक जा रहे है। अधिकाँश शहरो में तो पारा शून्य तक पहुचने के आसार हो गए है पहाड़ी क्षेत्रो में बर्फबारी भी शुरू हो चुकी है ऐसे मौसम में बर्फ का मज़ा लेने वाले पर्यटको की भीड़ लगी रहती है हिमालय की वादियो में बने हिल स्टेशनों पर इस मौसम में अदभुत चमक देखने को मिलती है ऐसा लगता है जैसे ये सैलानी पैसे के दम पर यहाँ की सारी रौनक अपनी झोली में समेट लेंगे।

सच है मौसम का असली मज़ा पैसे के ज़ोर पर ही है।

लेकिन इसके विपरीत कुछ क्या काफी चेहरे और भी है जिसके माथे पर परेशानी की लकीरे साफ़ देखी जा सकती है।
जैसे जैसे ठण्ड अपने पाँव पसारती है झोपड़पट्टियों अथवा खुले आसमानों के नीचे रहने वाले गरीब और बेसहारा लोगो की परेशानिया बढ़ जाती है। आखिर कैसे इस ठण्ड से अपनी जान बचाये। कुछ साल पहले के मुकाबले दिसंबर से जनवरी में पड़ने वाली ठण्ड में तीव्रता आई है। जनवरी में कंपकपाने वाली ठण्ड उन लोगो के लिए काल बन जाती है जो बेसहारा होते है जिनके तन पर ढकने के लिए ढंग का कपडा भी नहीं होता है जो प्लेटफार्मो, पार्को, फुटपाथो और खुले आसमानों के नीचे जीवन बिताने पर मजबूर है इन बेघर और बेसहारा लोगो की सुध  लेने वाला कोई नहीं होता है।

शायद गरीब का कोई नहीं है कि युक्ति यहाँ उचित होगी। आज ही देखा कुछ ऐसे गरीब जिनके सहारे नहीं है और उनके पास आग जलाने का साधन भी नहीं है वो चाय पान की दुकानों के आस पास बिखरे जूठे गिलास और कागज़ों को इकठ्ठा कर थोड़ी सी आग जला कर खुद को गर्म रखने की कवायद कर रहे थे। कहने को तो सरकार अलाव जलवाने की उचित व्यवस्था करती है। मगर हकीकी ज़मीन पर नज़ारा कुछ अलग ही होता है। अलाव जलाने को या तो लकडिया नहीं आती है या फिर आती भी है तो वह इस स्थिति की होती है कि उनकी नमी से वह जल ही नहीं पाती है।
जो भी हो,मगर करोड़ो अरबो रूपए विकास की राह पर खर्च करने वाली केंद्र और राज्य सरकारे ठण्ड रूपी आपदा को लेकर क्यों गंभीर नहीं है शीत लहर के प्राकृतिक आपदा में शामिल हो जाने के बाद भी  पीड़ित व्यक्तियो को सहायता मिलना नामुमकिन सा लगता है क्योकि कागज़ी कार्यवाही ही इतनी जटिल होती है। वैसे भी गरीब की मौत किसको आंसू देती है। दर्द तो उस गरीब की मौत का उसके अपनों को कुछ अलग ही होता है। इस दर्द और कसमसाहट को मुंशी प्रेमचंद्र ने अपने कहानी “कफ़न” में एक लाइन में बयान किया है। “जिसको तन ढकने को जीवन भर एक चीथड़ा भी नसीब नहीं हुवा उसको भी मरने के बाद नया कफ़न चाहिए होता है।” इस उदासीनता का जवाब शायद सरकार के पास भी न हो। मगर शासन प्रशासन जल्द ही इन बेघर बेसहारा और मजबूर इंसानो को लेकर सचेत न हुई तो पिछले साल के मुकाबले इस साल ठण्ड से मरने वालो की संख्या बढ़ सकती है और इसकी ज़िम्मेदारी किसकी होगी इसका निर्धारण करना कठिन नहीं है।
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