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यहाँ के पण्डो के पास सुरक्षित है आपके पुर्वजो की डिटेल

इलाहाबाद। शीतल सिंह “माया”। आपके पास भले ही अपनी कई पीढि़यों के नाम या पूरी वंशावली हो न हो लेकिन यहां के पंडों के पास इसका पूरा लेखा जोखा है। उत्तर प्रदेश की संगमनगरी कहे जाने वाले इलाहाबाद में इनदिनों संगम की रेती गुलजार है। यहां संगम के तीरे तम्बूओं का एक पूरा नगर बसा है। जहां एक ओर दूर दूर से कल्पवास करने श्रद्धालु आए हैं, वहीं दूसरी ओर यहां साधू-संतों का जमावड़ा है। इतना ही नहीं यहां ऐसे भी कुछ पंडे हैं जिनके पास आपकी पूरी वंशावली का लेखा- जोखा है।

हर साल बहीखाता में दर्ज होता है विवरण
पंडों के पास अपने यजमानों की पूरी वंशावली मौजूद है। उसमें हर साल नए यजमान का विवरण दर्ज करते हैं। यह वंशावली पूरी तरह से हस्तलिखित और सर्वमान्य है। बोलचाल की भाषा में इसे बहीखाता कहते हैं। पुरोहितों का मानना है कि पहले बहीखाता को लिखने के लिए मुनीम रखे जाते थे। आज भी संपन्न पंडों के यहां मुनीम कार्य करते हैं। यजमानों को पहचान कर निर्धारित पंडों के यहां तक लाने के लिए अलग-अलग जातियों के अनुचर रखे जाते हैं जिसें करिंदा कहा जाता है। इन्हें निश्चित वेतन के साथ-साथ कमीशन भी मिलता है। यह करिंदें स्नान-दान, श्रद्ध या अस्थि विजर्सन के लिए दूर-दराज से आने वाले यजमानों को निर्धारित पंडों के पास पहुंचाते हैं।
झंडे हैं पंडों की पहचान
माघ मेले में पंडों के शिविरों में अलग निशान के साथ झंडे फहराते हैं। तमाम यजमान इन झंडों को देखकर ही उनके शिविरों तकपहुंचते हैं। अलग-अलग प्रतीक चिह्नों के झंडे कई मयाने में महत्वपूर्ण हैं। इसका निर्धारण पंडों के पारंपरिक पहचान से जुड़ा है। यह पहचान राजाओं ने ताम्रपत्रों पर चिह्न् अंकित करके पंडों को सम्मान के साथ भेंट किया था। आज भी इन सम्मान पत्रों को पंडों के परिजन संभाल कर रखें हैं। वहीं उनका अधिकार पत्र है। शुरू में इसकी सीमा राज्य स्तर पर थी, लेकिन जैसे-जैसे पंडों की पीढ़ी बढ़ती गई यह संगठन के रूप में जिला, तहसील, ब्लाक, गांव और अब जाति के आधार पर सीमाओं का क्षेत्र घटकर सीमित हो गया। लेकिन पंडों का प्रतीक चिह्न् सबका पुराना ही है।
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