वसीम अकरम त्यागी की कलम से |
और ये जिक्र यहीं तक नहीं रुका उन ‘अम्मी ए राना’ के ‘मुनव्वर’ को दुनिया मां पर शायरी करने के लिये पुकारने लगी। बकौल मुनव्वर ” मैं जब इस दुनिया के झमेलों से ऊब जाता हूं तब मां की आगोश में जाकर बैठ जाता हूं, उन्हें कुछ दिखाई तो नहीं देता लेकिन मेरे चेहरे पर हाथ फेरकर वह उसे पढा करती है” मुनव्वर के लिये उनकी मां महज ‘मां’ नहीं बल्कि आस्था का केन्द्र हैं। तभी तो वे झमेले से ऊबकर मां की गोद में बैठने के लिये जाते हैं। उस मां का चले जाना जिसने राणा को ‘मुनव्वर’ बनाया महज मुनव्वर राणा की क्षति नहीं है बल्कि साहित्य की क्षति है क्योंकि मुनव्वर राना के द्वारा लिखा गया अधिकतर साहित्य मां पर ही केंद्रित है। मां पर शेर कहकर लोगों को सुन्न कर देने वाले उनकी आंखों से आंसू निकाल देने वाले उस बेटे की तकलीफ का आप सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं जिसने कहा था कि-
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