आशु खान की कलम से निकला ज्वालामुखी
सरकारी/गैर सरकारी नौकरियों से लेकर समाज की मुख्य धारा तक में दमन का प्रतीक बन चुकी महिलाओं के नाम पर साल में एक दिन का आयोजन कर लिया जाना मर्द प्रधान इस समाज की सोच बदलने के लिए काफी नहीं है। आज हम बेटे और बेटी के लिए उसकी पढाइ से लेकर नौकरी और उसके लिए खेल के चयन तक में चूजी हैं। लाडली, दुलारी, सुकन्या, निर्भया का नाम देने और बेटियों से एक रिश्ता खास एलान करने वाले मप्र को ही उनके चारित्रिक और शारीरिक दमन का अव्वल दर्जा हासिल है। जेल में बंद विदेशी महिला गर्भवती हो जाती है। पुरुष पसंद समाज की सोच का आलम यह कि विधानसभा रिपोर्टिंग करने पहुंची महिला पत्रकार को को ताज्जुब भरी नज़र के सिवा कुछ हासिल नहीं। जन्म के बाद जमीन में दफ़न कर दिए जाने की परंपरा समाज बदल का सूचक नहीं कही जा सकती, अब तो पैदा होने का इन्तजार किए बिना गर्भ में ही कत्ल कर दिए जाने का रिवाज आम हो चला है। मन्च से उछलते जुमले, फाइलों में दौड़ती सशक्तिकरन योजनाएं ही अगर महिला समानता की तस्दिक हैं तो समाज बहुत बदल चुका। लेकिन जमीनी हकीकत इसके विपरीत है, बिना दहेज कई बेटियाँ घरों में बैठी हैं तो कई आग के हवाले की जा रही, सरेआम बस-टैक्सी में चीर हरण हो रहा है, औरत को जलील करने का कोई मौका मर्द नहीं छोड़ रहा। औरत की कहानी अब भी वही है, जो सदियों पहले थी, शब्दों के आवरण डालने से कुछ नहीं बदलने वाला है।
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