शेर सिंह ( गौरव )
रामपुर। सदियों से हमारे घरों की व्यवस्था प्राय महिलाएं ही संभालती आ रही हैं और आज जब उन पर कई नई जिम्मेदारियों आईं बावजूद इसके इस जिम्मेदारी से उनको मुक्ति नहींमिल पाई है। घर बाहर की जिम्मेदारी निभाने में महिलाएं अपना तन मन धन सब लुटा रही हैं मगर समाज आज भी उसकी जिम्मेदारियां को निभाने की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाने से बाज नहीं आता है। महिला एक बेजान मकान को घर वही बनाती हैं। वे चाहे मां के रूप में हो, बहन के रूप में हो, पत्नी या बेटी के रूप में हों उनका हर रूप सेवा के इर्द-गिर्द घूमता है। यहां तक कि पुरुष को जीवन संघर्ष की शक्ति वही प्रदान करती हैं। आज नारी कई मोर्चें पर अपनी जिम्मेदारी निभा रही हैं। बाहर का सारा काम उसी तटस्था और एकाग्रता से करती हैं जैसे पुरुष फिर भी उससे यही उम्मीद की जाती है वो घर की जिम्मेदारी भी वैसे ही निभाए जैसे कोई गृहणी निभाती है। जबकि पुरुषों से बाहर कमाने के अलावा और कोई भी फर्ज निभाने की उम्मीद नहीं की जाती है। चाहे घरेलू हो या कामकाजी आज भी घर की जिम्मेदारी महिला ही उठाती है।
बदलाव के बाद भी हालात वह समाज और परिवार की सोच में आए तमाम बदलावों के बावजूद आज भी घर के कामकाज की सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही है। और ये हालात सिर्फ भारत में ही नहीं हैं बल्कि ब्रिटेन जैसा देश भी महिलाओं को समान अधिकार नहीं दे पाया है। आज भी घर के अधिकांश कामों की जिम्मेदारी महिलाओं पर है। कई महिलाएं प्रति सप्ताह 13 घंटे घर की साफ-सफाई और कपड़ों की धुलाई का काम करती हैं। साथ ही बच्चों की देखभाल व अन्य जिम्मेदारियां तो हैं ही। समानता की तमाम बातों के बावजूद शादी होते ही महिला से उम्मीद की जाती है कि वो घर तो संभाले ही साथ ही मोटी कमाई भी घर लाए।
खत्म नहीं होती जिम्मेदारियां
सामाजिक कार्यकर्ता डा. सत्यभामा अवस्थी ने कहा कि घर में नई बहू के आने का मतलब है कि वो काम-काज करेगी बिना थके, बिना रुके। भारतीय संस्कृति में जब भी घर में नई बहू का प्रवेश होता था सास उसे चाबियों का गुच्छा दिया करती थी पर सिर्फ चाबियां रखने से वो इस बात के लिए स्वतंत्र नहीं रहती कि अपनी मर्जी से पैसे निकाल कर खर्च कर सके। हर सुविधा पास में होने के बाद भी उसे आर्थिक स्वतंत्रता नहीं मिली। अक्सर महिलाएं बच्चों की छोटी-मोटी जरूरतों को भी पूरा करने से पहले पति की राय लेती है पर पति ऐसा नहींकरते हैं। इससे होता ये हैं कि बच्चों की नजरों में उनका सम्मान नहीं होता। जब वहीं जरूरतें पिता पूरी कर देता है तो बच्चों के मन में ये भावना जागृत होती है कि मां तो कुछ नहीं करती। ऐसी भावना पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जाती है। पुरुष ऑफिस से तो छुट्टी लेकर घर बैठ सकते हैं पर महिलाओं की तो कोई छुट्टी का दिन ही नहीं है। इस चुभन के साथ कि उसके काम-काज को कोई महत्व न देकर हर वक्त उसे जिम्मेदारियों के बीच तौला जाता है। वृद्धावस्था में उनको और भी दुखद स्थिति का सामना करना पड़ता है। बुजुर्ग महिलाओं की परिवार में सबसे ज्यादा उपेक्षा की जाती है। न तो गांठ में पैसे और न शरीर में जान। इस कारण उनका सम्मान और भी खत्म हो जाता है।अपनी तनख्वाह पर भी हक नहीं साहित्यकार कमल भारती का कहना है कि भारतीय संस्कृति में नारी को पति की संगिनी और अर्धांगिनी माना जाता हैं। उसे अपने पति से अधिकार स्वरूप कुछ भी मांगने का पूरा हक है और पति का भी फर्ज है कि वो उसे हर अधिकार दे। पत्नी पूरा घर संभालती है और इस काम को बदले कोई मूल्य नहीं मिलता मगर वह काम के प्रति अपने समर्पण को कम नहीं करती। घर खर्च के लिए जो पैसे दिए जाते हैं, उनका भी हिसाब रखा जाता है। क्या खरीदा, कहां पैसे खर्च किए और अगर गलती से अपने पर या बच्चों पर खर्च कर दिया तो पूरे महीने का बजट ही बिगड़ जाता है। कई पति तो पत्नी को अपनी पूरी सैलरी ही दे देते हैं उनको कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो हाउसवाइफ है या कामकाजी महिला पर कई ऐसे पति हैं जिनहोंने अपनी पत्नी को ये तक नहीं बताया कि उनकी तनख्वाह कितनी है। समय बदला और कुछ औरतों ने अपने आप को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाया। लेकिन उन महिलाओं से भी पूछा जाए कि वे आर्थिक रूप से पूरी तरह स्वतंत्र हैं तो उनको भी जबाव देने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है। उनकी भी तनख्वाह पर पति व ससुरालवालों की नजर रहती है। पति अक्सर उन पैसों का हिसाब रखता है। जब कामकाजी महिलाओं की स्थिति ऐसी है तो सारा दिन घर बाहर काम करने वाली महिलाओं की स्थिति सोची जा सकती है। मतलब साफ है पति की नजर में उस काम को कोई महत्व नहीं जिसके बूते वो घर की चिंता से मुक्त रहकर आराम से ऑफिस जाता है।घरवाली या कामवाली
बरसों से हमारे घर में महिलाएं निस्वार्थ भाव से अपनी भूमिका निभाती आई हैं। घर की देखभाल, बड़े-बुजुर्गों की सेवा, बच्चों का लालन-पालन, पति की सेवा, सब कुछ उनके जिम्मे हैं। भारत में कभी भी गृहणियों के काम-काज को महत्व नहीं दिया गया लेकिन अब सरकार ने इस काम-काज को आंकने की पहल की है। महिला और बाल विकास मंत्रालय की यह पहल आम गृहणियों के लिए सराहनीय है मगर गृहणियों को पारिश्रमिक ठीक नहीं क्योंकि उसके श्रम का मूल्य देने की बात की जा रही है। कहीं ये घरवाली को कामवाली बनाने की साजिश तो नहीं। सबसे बड़ी बात ये है कि अगर पुरूष अपनी तनख्वाह का एक हिस्सा अपनी पत्नी को दे भी दें तो इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। हो सकता है पुरुष का बल और मजबूत हो जाएगा और वो अपनी घरवाली को कामवाली की तरह देखने लगेगा। महिलाओं को खासकर गृहणियों को पैसे की नहीं, उनको उचित सम्मान दिलाने की जरूरत है। पति का ये कर्तव्य होना चाहिए कि वो अपनी पत्नी को आर्थिक रूप से सबल बनाकर उसके आत्मविश्वास को बढ़ाए और साथ ही घर की जिम्मेदारियां भी बांटे ताकि महिला पर दोहरी जिम्मेदारी निभाने का बोझ न बढ़े। उनसे घर के मुख्य सदस्यों की तरह हर छोटे-बड़े काम में उनकी सलाह ली जाए। दबा-छुपा कर थोड़े बहुत पैसे जोडक़र खुश होने वाली महिलाओं को भी आत्मनिर्भर होना चाहिए ताकि जरूरत पडऩे पर वो परिवार और बच्चों की मदद कर सकें। हर छोटी-बड़ी चीज के लिए उन्हें अपने पति सामने हाथ न फैलाना पड़े।