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देश का अमर शहीद महेंद्र यादव- नवंबर में होनी थी शादी।

हरिशंकर सोनी।
सुल्तानपुर। वो बहुत खुश थी, सच पूछो तो फूलों न समां रही थी, उसकी मेहंदी कुछ अलग रंग की होनी थी, हो भी क्यों न, सेना के जवान के साथ उसकी शादी जो हो रही थी। सेना का गबरू वो जवान जो अपने गाँव छोडो पूरी तहसील का सबसे स्मार्ट जवान था। शुरू से ही काबिल था। हमेशा देश सेवा का एक बड़ा जज्बा उसके दिल में था। वो अपनी ही धुन में रहने वाला।
मगर सृष्टि के रचयिता ने उसकी किस्मत में कुछ और ही रचना रच रखी थी। अभी 2 माह से कुछ ही ज़्यादा समय बचा था, एक फ़ोन ने उसका सपना तोड़ दिया। अपने सपनो के राजकुमार के साथ जीवन के सपने सजाये सलोनी (परिवर्तित नाम) की आँखों के आंसू भी सुख गए है। जिस सपनो के शहज़ादे के साथ उसने अपने जीवन के सपने सजाये थे, जिसको कभी आमने सामने देखा भी न था, जिसके नाम से उसकी सखिया उसको छेड़ती थी, वो सपनो के राजकुमार जिसको उसके घर वालो ने उसके लिए पसंद किया था, जीवन का सफर शुरू होने के पहले ही उसको छोड़ कर जा चूका है। उसने अपने जीवन का बलिदान देश के आन बान शान की खातिर दे दिया है। शाब्दिक तो नहीं मगर शायद सोच से वह विधवा हो चुकी है। वो फिर न आएगा। शायद उसके लबो पर आखरी सांसो में यही तराना रहा होगा कि “खुश रहना देश के लोगो, अब हम तो सफर करते है।”
तिरंगे में लिपटी उस सपनो के राजकुमार को वो आखरी बार और पहली बार भी न देख सकी, आखिर समाज की नीतियां भी तो कोई मायने रखती है। चला गया महेंद्र यादव, अपने ज़िले का नाम अपनी जान देकर रोशन कर गया। 5 भाइयो में तीसरे नंबर का यह जवान। पिता की आँखों में आंसू तो है, मगर छाती गर्व से चौड़ी है। जिस घर में नवंबर में शहनाइयां बजने वाली थी वहां मौत का मातम है। जिस गाँव में नवंबर में शादी की आलीशान दावत होनी थी उसी गाँव में उसी वीर की तेरही की पुड़िया पकेगी। कल फिर होगा, कल फिर आएगा, समय बीतता जायेगा। मगर महेंद्र यादव जैसा वीर रोज़ रोज़ नहीं पैदा होता। माँ का कलेजा मुह को आ रहा है। भाइयो की आँखों से आंसू रुकने का नाम न ले रहे है। बहने तो रो रो कर बुरा हाल कर बैठी है। दोस्तों की पूछो न। उनका साथी, उनका असली हीरो अब नहीं रहा। गाँव वालों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसकी पलकों का किनारा न भीगा हो। आज गाँव की सुबह ज़रूर हुई मगर प्रकृति की सुबह हुई है, क्योकि गाँव वालों की तो रात ही न हुई थी। सब रक टकटकी लगाए अपने ज़िले के वीर सपूत के आखरी दर्शन को बेचैन थे। अजब इतिफाक था, किसी को देखने के लिए आँखे नम लेकर लोग इंतज़ार कर रहे हो।
उस पिता जिसका भले अपने बेटे की शहादत पर सीना गर्व से फुला है, उसकी स्थिति तब क्या होगी जब उसके कंधे पर उसके जवान बेटे का बोझ कुछ पल के लिए आएगा। जिस कंधे पर उसने इस वीर सपूत को बैठा कर पूरे गाँव की सैर करवाई है उसी कंधे पर उसी वीर सपूत को उठा कर वो कैसे शमशान की भूमि तक जायेगा। उस माँ की मनो स्थिति क्या होगी जो अपने जवान बेटे का सेहरा सील रही थी, वो कैसे उसी जवान बेटे को कफ़न में लिपटा देख सकेगी। आखिर कब तक ऐसे शहादत का सिलसिला चलता रहेगा, आखिर कब तक ऐसे जवान अपनी जान निछावर करते रहेंगे। कुपवाड़ा के शहीदों का परिवार यह सवाल ज़रूर पूछना चाहता होगा मगर उनके सवालो के जवाब देने वाला कोई नहीं है।
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