अखिलेश सैनी।
बलिया। आजादी का जश्न वो मनाये तो कैसे… जो आ गये फुटपाथ पर घर की तलाश में…। सोमवार को अरूणोदय के साथ ही देश स्वतंत्रता की 70वीं वर्षगांठ मना रहा है। पर अफसोस, 70 वर्षो के इस ऐतिहासिक सफर में न जाने कितने ऐसे बेवस व लाचार है, जो दो जून की रोटी, तन ढ़कने के कपड़े व सर छुपाने के छत के लिए अपने रहनुमाओं की ओर टकटकी लगाये देख रहे है। हर बार लाल किले की प्राचीर से लेकर जनपद स्तर तक विभिन्न योजनाओं के न सिर्फ उपलब्धियों का जिक्र किया जाता है, बल्कि संतृप्त आंकड़ें भी प्रस्तुत किये जाते है। बावजूद इसके देश के गांवों में निवास करने वाली आधी जनसंख्या ‘आहें’ भरने को मजबूत होती है।
जनपद स्तर पर यदि बाढ़ विस्थापितों की बात करे तो यह वाक्य समझने में देर नहीं लगेगी। बाढ़ विस्थापितों के साथ पुनर्वास के नाम पर छल, कपट और दम्भ का सहारा ले राजनीति के धुरंधरों ने अपनी रोटी तो सेंकी, लेकिन विस्थापितों के चूल्हे को बुझाकर। सवाल यह है कि सात दशकों के लम्बे सफर को तय करने के बाद भी यदि देश की जनता भूख और आवास के लिए बिलबिला रही हो तो यह कैसी आजादी? किस काम की आजादी? सही मायनों में विकास का यह सफर कागजी घोड़े दौड़ाने में मदद कर सकता है, लेकिन हकीकत की धरातल पर इसका वजूद आज भी नगण्य ही है। काश! आजादी को अपने हिसाब से परिभाषित करने वाले राजनीतिक दल इन बेघरों और असहायों के दर्द को समझकर कुछ ऐसा कर जाते, जिससे असंख्य शहीदों की आत्माएं भी तृप्त हो जाती।