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सुल्तानपुर:-दुर्गा पूजा विशेष-प्रमोद कुमार दुबे की कलम से

दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें।दुर्गा पूजा लगभग सन 1790 में पहली बार कलकत्ता में हुगली के कुछ ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत लगभग ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में इस सांस्कृतिक पर्व को धूमधाम के साथ लोगो में मनाया जाता है।दुर्गा पूजा करने का श्रेय सन 1583 में ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है।

कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी।पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ़ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहीं दिखती थी, बल्कि पूजा पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन वाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। फलतः आज दुर्गा पूजा मूर्ति पूजा का एक प्रतीक है, पर दुर्गा पूजा अब धीरे-धीरे धन कुबेरों के शक्ति वर्चस्व का प्रतीक भी बन गया है। यह इस सांस्कृतिक पर्व के मिथ के सौंदर्य बोध और जीवन दृष्टि को तोड़नेवाला साबित हो रहा है। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहीं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है। इनकी आँखों में काजल नहीं अत्याचार के विरुद्ध खिंची भौंहें हैं। उनके पास असाधारण पौरुषवाले चार शक्तिशाली हाथ भी हैं।

शोषण रहित समाज के लिए
दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के लिए लोक मानस में स्थान नहीं होना चाहिए। दुर्भाग्य है कि बंगाल से शुरू हुई दुर्गा पूजा आज भारत में धार्मिक पुनरुत्थान का एक अमोघ अस्त्र बन गई है। जबकि बंगाल के आरंभिक संस्कृति कर्मियों का उद्देश्य यह कतई नहीं था। आज दुर्गा पूजा-जैसे पर्वों को धार्मिक लोकाचार, कर्मकांड और किसी भी तरह के धार्मिक छलावे से बचाने की ज़रूरत है। तभी इस पर्व की सांस्कृतिक गरिमा की विरासत को हम समाज और जनमानस में सुरक्षित रख सकते हैं। आज हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में महिषासुरी शक्तियाँ दिन-प्रतिदिन हिंसक और खूंखार प्रवृत्तियों का रूप धारण कर चुकी हैं। यह सिर्फ़ इसलिए हो रहा है कि हमारे समाज में दुर्गा का आदर नहीं है। उसकी वास्तविक शक्ति का हमें आभास नहीं है। हमारे मिथ में दुर्गा की इस महाशक्ति का आभास राम को था। उन्होंने रावण से युद्ध करने के पहले दुर्गा की पूजा की थी। आज के “राम की शक्ति पूजा ” की उस शक्ति और संघर्ष की क्षमता का अभाव है। इसलिए आज का मनुष्य बार-बार जीवन क्षेत्र में पराजित हो रहा है। इस पराजय से बचने का एक ही रास्ता है, वह है राम की तरह असाधारण शक्ति का भंडार अपने अंदर पैदा करना। तब ही भीतर की दुर्गा प्रसन्न हो सकती हैं। जिस दिन आस्था पैदा होगी, उस दिन जय होगी। ‘दुर्गा पूजा’ पर्व हमारे सामने हर साल एक नई चुनौती के रूप में आता है। प्रश्न उससे प्रेरणा लेने का है। मात्र पूजा की झाँकी देखने का नहीं।दुर्गा पूजा की तैयारी भारत के विभिन्न राज्यों के साथ साथ सुल्तानपुर जिले में होने वाली ऐतिहासिक दुर्गा पूजा की तैयारी बड़े जोरो के साथ चल रही है हर जगह बाहर से और क्षेत्रीय लोगो के द्वारा दुर्गा की मूर्ति तैयार की जा रही है। सुल्तानपुर जिले के सूरापुर,कादीपुर,मोतिगरपुर,बरोसा, कूरेभार, लंभुआ, चांदा,गोसाईगंज,करौंदीकला समेत अन्य स्थानों पर झांकी एंव पंडाल बनाये जा रहे है| जिसकी सुरक्षा के लिए पुलिस प्रशासन एंव पूजा समिति पहले से ही सक्रीय है| और पुलिस प्रशासन के द्वारा निर्देश दिया गया है कि सडको से उचित दुरी पर पंडाल लगाये जाये और अग्निशमन के लिए भी पहले से ही उचित प्रबंध किया जाये|साथ ही अराजकतत्वों पर भी पैनी नजर रखी जा रही है| जिससे कुछ भी अप्रिय घटना न हो| वही दूसरी तरफ कलाकार भी बड़े जोरो के साथ मूर्तियों को अंतिम रूप देने के लिए रात दिन अथक परिश्रम कर रहें है तथा बाहर से आये हुए कलाकार भी अपनी कलाकारी के द्वारा उत्कृष्ट प्रदर्शन कर अपनी कला को जीवन्त कर रहे है और देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मुर्तिया अभी बोल पड़ेंगी|
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