तब ही यजीद ने उन पर हमला कर दिया. वो जगह एक गहरा रेगिस्तान थी, जिसमे पानी के लिए बस एक नदी थी जिस पर यजीद ने अपने सिपाहियों को तैनात कर दिया था. फिर भी इमाम ने उसकी हुकूमत न कबूल की. वे सिर्फ 72 थे, जिन्होंने 8000 सैनिको की फ़ौज थी. वे सभी तो कुर्बान होने आये थे. दर्द, तकलीफ सहकर भूखे प्यासे रहकर भी उन्होंने कुर्बान होना स्वीकार किया मगर ज़ालिम कि हुकूमत नहीं स्वीकार कि. आखरी दिन इमाम ने अपने सभी साथियों को कब्र में सुलाया, लेकिन खुद अकेले अंत तक लड़ते रहे. यजीद के पास कोई तरकीब न बची और उनके लिए इमाम को मारना नामुमकिन सा हो गया. मुहर्रम के दसवे दिन जब इमाम नमाज अदा कर रहे थे, तब दुश्मनों ने उन्हें धोखे से क़त्ल कर दिया. इस तरह से यजीद इमाम को क़त्ल तो कर पाया, लेकिन हौसलों के साथ शहीद होकर इमाम जीते और शहीद कहलाया. तख्तो यही से यजीद के साम्राज्य का खात्मा हो गया.
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