जावेद अंसारी, वाराणसी।
उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस का नया गठबंधन सूबे ही नहीं,आने वाले दौर की राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करेगा। मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव ने समाजवादी राजनीति पर बहुत लंबे समय से पड़े ‘गैरकांग्रेसवाद’ के लबादे को उतार फेंकने की प्रासंगिकता को समझा। इसके साथ ही वर्तमान दौर की ज्वलंत राजनीतिक चुनौतियों के प्रति दायित्व को भी उन्होंने मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी की तरह परखा और उसके मुकाबले की रणनीति को सैद्धांतिक आधार पर एक धारदार स्वरूप देने की कोशिश की। इससे समाजवादी राजनीति को लीक से हटकर एक नया तेवर और नवीन जनाकर्षण प्राप्त हुआ है।
गैरकांग्रेसवाद’ सत्ता परिवर्तन का एक संक्रमणकालीन अस्त्र था। वह एक खास दौर में किसी हद तक बदलाव की कुंजी भी बना, लेकिन खुद की सकारात्मक सैद्धान्तिक पहचान के अभाव में वह राजनीतिक परिवर्तनों को स्थायित्व नहीं दे सका। हिन्दुत्ववादी सम्प्रदायवाद के उभार के दौर में उसके विरुद्ध मत-ध्रुवीकरण की सपा की एकल कोशिशें हिन्दुत्व आधारित राष्ट्रवाद की ग्रोथ निर्णायक रूप से दबा पाने में नाकाम रहीं। अत: रणनीतिक बदलाव एक युगधर्म बन गया था,जिसे राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने समान रूप से न केवल समझा,बल्कि स्वीकार किया।उल्लेखनीय है कि इस युगदायित्व से मुलायम सिंह यादव बिहार के बाद भी बचते ही रहे थे।इस पृष्ठभूमि में प्रस्तुत चुनौती के जबाबी युगधर्म के निमित्त मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा स्वयं के घर में जिस अनुशासित और प्रतिबद्ध विद्रोह की साहस एवं संकल्प भरी पहल हुई, उसका एक युगांतकारी राजनीतिक महत्व है।
सन् अस्सी और नब्बे के दशक में भारतीय लोकतंत्र के सामने दो बड़े खतरे खड़े हो रहे थे।एक ओर जहां साम्प्रदायिक फासीवाद की राजनीति परवान चढ़ रही थी, वहीं दूसरी ओर राजनीति के अपराधीकरण का खतरा भी बढ़ रहा था।इन दोनों चुनौतियों के विरुद्ध सेकुलर लोकतंत्र की आस्था वाली प्रगतिशील ताकतों की एकता एक राजनीतिक युगधर्म थी,जिसकी उपेक्षा होती रही।फलस्वरूप दोनों ही चुनौतियां घनीभूत हुईं। श्री अखिलेश यादव के राजनीतिक विद्रोह में इन दोनों ही चुनौतियों से सिद्धान्तनिष्ठ टकराव की प्रतिबद्धता और संकल्प का मुखर स्वर बेहद साफ था।वह प्रदेश की राजनीति में गुणात्मक सैद्धांतिक बदलाव का शंखनादभरा एक नया एवं साफ साफ संदेश था। बड़े बड़े माफिया सरगनाओं को धकियाने के घटनाक्रमों के साथ उभरे इस अभिनव संदेश ने प्रदेश के आम लोगों के साथ युवा वर्ग को आकर्षित ही नहीं किया,लुभाया भी। राहुल गांधी और कांग्रेस के साथ मिलकर दोनों ही चुनौतियों से मुकाबले के संकल्प की नई रणनीतिक आहट भी इस मुहिम में साफ थी।वह सधी चाल से समय पर प्रकट हुई। इसके साथ विकास की राजनीति का युवा नेतृत्व जोड़ी का संकल्प भी सामने आया,तो लोगों में सहज भरोसा जगता हुआ सा लगा। बात साफ है कि यू.पी. में नया साथ लोगों को पसंद आने की उम्मीद का आधार राजनीतिक अपराधीकरण और साम्प्रदायिक फासीवाद की ताकतों के विरूद्ध संकल्प की साफ पृष्ठभूमि में बना। निश्चय ही एक साफ सैद्धांतिक दिशा के साथ इस समूची मुहिम को तराशने में राहुल गांधी एवं अखिलेश यादव के साथ प्रियंका गांधी एवं डिम्पल यादव की युवा नेतृत्व की जोड़ियां बधाई की पात्र हैं।साथ ही इसके लिए परिवार एवं पार्टी में मूल्यों एवं साफ मंसूबों से भरे राजनीतिक संघर्ष के युगधर्म की भूमिका के लिए अखिलेश यादव ने जिस साहस एवं दृढ़ता का परिचय दिया,वह भी प्रशंसनीय ही नहीं, अभिनंदनीय है। वैचारिक चुनौतियों के विरुद्ध अपेक्षित युगदायित्व निर्वहन की यह भूमिका राजनीतिक इतिहास में लंबे समय तक उन्हें याद रखे जाने का कारक बनेगी।
कांग्रेस और सपा के बीच सन् साठ के दशक के राजनीतिक तकाजों के आधार पर बनी गैरकांग्रेसवाद की एक एक पिटी पिटाई लकीर भले रही हो, लेकिन दोनों में बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित खांई कभी नहीं रही,भले ही कार्यक्रमों के मतान्तर रहे हों।राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और उनके सेकुलर ताने-बाने की सैद्धान्तिक अवधारणायें दोनों दलों के बीच साझी रही हैं।दूसरी ओर आम आदमी के प्रति प्रतिबद्धता के साथ लोककल्याणकारी राज्य की भूमिका में विश्वास का भी साझापन रहा है। साथ ही मात्रात्मक भेद की गुंजाइश के बावजूद समाजवाद के प्रति आस्था की परंपरा भी दोनों ओर की विरासत में है।अत: बुनियादी मुद्दों पर दोनों के बीच मतभेद की वैसी गुंजाइश नहीं है, जैसी उन दोनों की ही भाजपा,संघ या धर्म-संस्कृति विशेष के वर्चस्व वाली अन्य विचारधाराओं के साथ है। अत: इस कसौटी पर भी कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में बने इस राजनीतिक नवगठबंधन का वैचारिक आधार स्पष्ट एवं पुख्ता है। इसे वैसा अस्वाभाविक स्वार्थी गठजोड़ नहीं कहा जा सकता, जैसा भाजपा-पीडीपी गठबंधन के लिए कहा जा सकता है।
किसी राजनीतिक पहल का मूल्यांकन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की कसौटियों पर भी जरूरी होता है।इतिहास के झरोखे में झांकने पर कहा जा सकता है कि कांग्रेस और समाजवादी परंपरायें तो सहोदर राजनीतिक परंपरायें रही हैं।
कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी थी।नेहरू का भी समर्थन आचार्य नरेंद्रदेव और उनके बाद बाबू सम्पूर्णानंद की अध्यक्षता में आगे बढ़े कांग्रेस के उस सहसंगठन को था।गांधी भी साझी आस्था का केंद्र थे। देश की आजादी के बाद कांसोपा का बड़ा भाग कांग्रेस से अलग हुआ,तो उसके पीछे बुनियादी सिद्धांतों पर मतभेद कारण नहीं थे। वस्तुत: देश में नवस्थापित विराट लोकतंत्र को एक मजबूत सैद्धांतिक विपक्ष कि स्थापना कर गतिशील एवं स्वस्थ रूप देने का युगदायित्वबोध अधिक बड़ा प्रेरक कारण था।वह तपे तपाये लोगों का गंभीर दायित्वपूर्ण फैसला था।उसमें बुनियादी सिद्धांतों नहीं, कार्यक्रमों पर मतभेद हो सकते थे; लेकिन मनभेद की जगह नहीं थी।
अत: आज जब सेकुलर ताने-बाने पर आधारित राष्ट्रीयता एवं लोकतंत्र की उस स्थापित अवधारणा एवं संरचना के प्रति ही साम्प्रदायिक राजनीति की बड़ी चुनौती का साझा अनुभव दोनों दल कर रहे हैं,तो सपा-कांग्रेस के इस गठबंधन के सैद्धांतिक औचित्य को नकारने का समाजवादी-वरिष्ठों का मताग्रह सहज अप्रासंगिक हो जाता है। साथ ही श्री आखिलेश यादव द्वारा गठबंधन के युगधर्म की सुविचारित पहल की दार्शनिकता का औचित्य भी प्रतिपादित होता है।
इस तरह अतीत में सपा और कांग्रेस के मतभेदों और राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी पूर्व की परस्पर विरोधी भूमिकाओं की पृष्ठभूमि से उनके इस गठबंधन पर विरोधी राजनीतिक खेमों से चाहे जैसे भी तंज एवं सवालिया निशान उछाले जांय,लेकिन दोनों दलों का गठबंधन निर्विवाद रूप से स्पष्ट सैद्धान्तिक दृष्टि एवं धरातल पर खड़ा है,जो प्रदेश की राजनीतिक दशा और दिशा पर जहां गहरा दूरगामी असर छोड़ेगा, वहीं भावी राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करेगा।।राजनीति में साम्प्रदायिकता और अपराधीकरण की गुंजाइश के विरूद्ध एक साझे संकल्प की नींव पर खड़ा यह मोर्चा उत्तर प्रदेश में एक साफ सुथरी और नई पीढ़ियों के हित में विकासपरक राजनीति के शुभ संकेतों की एक नई उम्मीद जगाता है।