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उत्तरप्रदेश के विफल होते औद्योगिक शहरों की कहानी

शबाब खान
चुनावी मैदान में भाग्य आजमा रही पार्टियां चाहे कितने भी वादे करें कि प्रदेश को विकास के पथ पर लेकर गये, लेकिन हकीकत कुछ और ही कहानी बयॉ कर रही है। यदि इस समय हम केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें तो इस क्षेत्र के उद्योग-धंधे पूरे प्रदेश की दिशा व दशा तय करने की हिम्मत रखते हैं। पश्चिमांचल के अधिकांश जिले अपनी औद्योगिक पहचान रखते हैं, लगभग हर जिले को वहॉ के उद्योग से जाना जाता है। चाहे आगरा का जूता उद्योग हो या फिरोजाबाद की चूड़ियां या मुरादाबाद का पीतल या फिर मथुरा की टोंटी उद्योग, इन सभी की नब्ज़ धीरे-धीरे थमती जा रही है। सरकारों नें इनके प्रति दूरदर्शिता नही दिखाई जिसकी वजह से लाखों को रोजगार देने वाले यह उद्योग नगरियॉ बदहाल होती चली जा रही हैं। डालते है पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन्ही दम तोड़ते नगरों पर प्रकाश।

गौतमबुद्ध नगर (नोएडा):
नोएडा को प्रदेश का ‘शो विंडो’ कहा जाता रहा है, लेकिन यह भी अब केवल नाम का ही शो विंडो रह गया है क्योकि यहॉ की इकाईयां लगातार औद्योगिक विकास और विस्तार के लिये तरस रहीं हैं, उनकी सुनवाई करने वाला कोई नही है। इस शहर के विकास और विस्तार के लिए 1978 में नोएडा औद्योगिक विकास प्रधिकरण का गठन किया गया था जो अब अपने मूल सिद्धांतों से भटक गया है, औद्योगिक विस्तार की जगह बिल्डर-लॉबी के विस्तार को महत्व देने में जुटा है। नतीजन कई इकाईयां यहॉ से पलायन कर गई, जो बची है वो मजबूरन काम कर रही हैं। औद्योगिक नगरी की इस दुर्दशा के लिये सिर्फ राजनीतिक दलों की औद्योगिक समझ का न होना ही माना जा सकता है। कैसे? हम समझाते हैं।
वर्ष 2012 में प्रदेश की बागडोर अबतक के सबसे युवा मुख्यमंत्री नें संभाली। प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिये औद्योगिक निवेश व अवस्थापना नीति 2012 को लागू किया गया, हालाकि यह वर्ष 2005 की संशोधित पॉलिसी थी लेकिन इस नीति में दो ऐसी एजेंसी (पिकअप व यूपीएफसी) को औद्योगिक विकास व विस्तार की जिम्मेदारी सौप दी गई जो अपने आप में नीति निर्धारक की कार्य प्रणाली पर सवालिया निशान हैं, क्योकि यह दोनों ही एजेंसियां पूरी तरह से वित्तवहीन संस्था के रूप में प्रदेश में जानी जाती रहीं हैं। पिकअप संस्था 2002 से ही दिवालिया हो रही थी। वर्ष 2010 में पूरे प्रदेश से अपना बोरिया बिस्तर समेट चुकी थी। नोएडा कार्यालय का किराया तक देने के उसके लाले पड़े थे। वहीं उत्तर प्रदेश वित्त निगम (यूपीएफसी) की फंडिंग पर 2007 में तत्कालीन सरकार नें सत्ता संभालते ही रोक लगा दी थी जो आज तक जारी है। ऐसी संस्थांए जो पहले से अपने फंड के लिये जद्दोजहद कर रही हों उनकों नोएडा के औद्योगिक विकास और विस्तार की जिम्मेदारी सौपकर सरकार नें अपनी औद्योगिक नासमझी का उदाहरण ही दिया था।
मथुरा (टोंटी उद्योग):
शहर में टोंटी बनाने की छोटा बड़ी 50 फैक्ट्रियॉ हैं, जबकि फैक्ट्री और उससे मिले जॉब वर्क पर तकरीबन 10 हजार परिवार आश्रित हैं। लेकिन नोटबंदी से कारोबार 75 फीसदी तक कम हो गया है। मजदूर चले गये है, सरकार की नीतियां भी ऐसी नही है जिससे इस उद्योग को सहारा मिले। टोंटी फैक्ट्री संचालक कहते है कि 70-80 साल से शहर में यह कारोबार चल रहा है, लेकिन सरकार की ओर से कभी कोई खास मदद नही मिली। न ही टोंटी कारोबार के लिये कोई अलग ज़ोन विकसित किया गया, न ही उद्योग के लिहाज़ से सुविधा प्रदान की गई, कारोबारियों को खुद ही प्रयास करने होते है। नोटबंदी से इस कारोबार को झटका लगा है। चूँकि यह कारोबार मजदूर आधारित है इसलिए नोटबंदी का प्रभाव अधिक पड़ा है।
मजदूर अपने घरों को चले गए तो लौटकर ही नही आये। पेमेण्ट के तौर तरीकों को लेकर भी उद्यमी परेशान हैं। 90 के दशक में सौंख रोड, गोवर्धन, औद्योगिक क्षेत्र में जिन लोगों नें टोंटी उद्योग लगाया उनकी किस्मत चमक गई। कई लोगों नें करोड़ों रूपए बतौर मुनाफा कमाया, लेकिन नोटबंदी ने सब चौपट कर दिया। चेक से भुगतान की बाध्यता से उद्यमिंयों के मुनाफे पर चोट हो रही है।
आगरा – लालफीताशाही की भेंट चढ़ी ‘शू इंड़स्ट्री’:
आगरा शहर का सबसे बड़ा जूता उद्योग पिछले पॉच सालों में अधिकारियों के तानाशाही रवैये की भेंट चढ़ गया। योजनांए तो कई बनीं लेकिन बदनीयत के आगे घुटनें टेंक गईं, भयमुक्त वातावरण न मिलने से भी जूता उद्योग आगे नही बढ़ सका। आगरा फुटवेयर मैनुफैक्चरर्स एण्ड एक्सपोर्टस चैंबर (एफमेक) के अध्यक्ष पूरन डाबर बताते हैं कि इन वर्षों में सरकार द्वारा काफी संसाधन देने के प्रयास किये गए हैं। तीन वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा शिलान्यास की गई मेगा लेदर क्लस्टर योजना 25 हेक्टेयर में बननी थी। एन्वायरमेंट क्लियरेंस की जरूरत नही थी, मगर अधिकारियों द्वारा जानबूझ कर अनुमति नही दी गई।
आगरा शू फैक्ट्रीस फेडरेशन के अध्यक्ष कहते है कि बहुत प्रयास के बाद सरकार नें 300₹ तक का जूता कर मुक्त कर राहत दी, मगर जूते पर अमिट छाप वाली एमआरपी अंकित करने का भी आदेश दे दिया। इसके अलावा फैक्ट्री को चलाने के लिये आवश्यक बिजली का भी रोना है, गर्मियों में तो साढ़े पॉच घण्टे तक का पॉवर कट रहता है जिससे प्रोडक्शन पर असर पड़ता है। गौरतलब है कि आगरा जूता निर्यात का बाजार तकरीबन 4000 करोड़ और घरेलू आपूर्ति 10000 करोड़ की है।
फिरोजाबाद- कम हुई चूड़ियों की खनकार:
खनखनाती चूड़ियां और कॉच के उत्पाद जिले को विदेशों तक पहचान ही नही दिलाते हैं, शहर की अर्थव्यवस्था भी कॉच के इर्द-गिर्द घूमती है। दो लाख परिवारों का चूल्हा कॉच के सहारे ही जलता है, लेकिन चूड़ियों के शहर को मजबूती देने वाला कॉच आज ख़ुद कमजोर हो गया है। टीटीजेड में 24 घण्टे बिजली देने का न्यायालय का फ़रमान आज भी ख्वाब सरीखा है। एक्सपोर्टस बताते हैं कि कॉच उद्योग का इन्फास्ट्रक्चर आज तक सरकार विकसित नही कर सकी, डिजाईन एवं तकनीक के लिए उद्यमी और निर्यातक खुद पर निर्भर हैं। उद्यमिंयों का कहना है कि ढाई दशक में किसी भी सरकार ने कोई रियाएत नही दी है। कॉच के सामान पर 28 फीसदी वैट और एक्साईज़ है जो गुजरात मे केवल 17 फीसदी है। निर्यात क्षेत्र में सब्सिडी अपर्याप्त है। जबकि जिले मे कुल 50 बड़े निर्यातक है जो पंजिकृत है जिनका कारोबार 500 करोड़ से अधिक है। फिरोजाबाद का यह खनकता उद्योग जो तकरीबन पॉच लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराता है और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में 1500 करोड़ की विदेशी मुद्रा लाता है आज सरकारी उदासीनता, माफियाराज, अफसरशाही के दंश से हताशा के आंसू रो रहा है।
चाहे नोएडा हो या मथुरा, आगरा या फिरोजाबाद या मुरादाबाद सबकी हालत पतली है यदि समय रहते सरकार नही चेती तो इन उद्योगों का भी बंबई की बंद कपड़ा मिलों जैसा हाल हो जायेगा जहॉ आज प्रोडक्शन की जगह फिल्मों की शूटिंग होती है।
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