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हम अपनी समझ को ताक पर रखकर खुद को सत्ता और उसके आदर्शों के हवाले कैसे कर देते हैं!

रूस-चीन की क्रांति के रक्षकों में से कई बाद में उस दौर को याद करके पछताए जब उन्होंने अपने प्रियजनों को एक ऐसे आदर्श की भेंट चढ़ा दिया जो बिलकुल झूठा था

शबाब ख़ान
यह स्टालिन के वक़्त का क़िस्सा है। सोवियत संघ अपने जन्म के कुछ वक़्त बाद ही सबसे बड़े हमले का मुक़ाबला कर रहा है। हिटलर की फ़ौज उस पर हावी है। राष्ट्र का हरेक शख़्स अपनी पितृभूमि की रक्षा में जान की बाज़ी लगाने को तैयार है।

पांच स्कूली बच्चे लाम पर जाने को बेताब हैं। वे अपनी उम्र छिपाते हैं और सेना में भर्ती हो जाते हैं। जंग के बीच, जर्मन फ़ौजियों से लड़ते हुए वे पके हुए फ़ौजी बन जाते हैं। लेकिन उनमें से एक कवि है। वह यकायक अपने अधिकारियों के द्वारा गिरफ़्तार कर लिया जाता है। वह क्योंकर गिरफ़्तार हुआ, उसने आख़िर किया क्या था?
लड़ाई के बीच अपने दुश्मनों को मारते हुए उसे जंग की निरर्थकता का अहसास होता है और वह इसी भावना को व्यक्त करते हुए एक कविता लिखता है। यह ख़बर उसके अधिकारियों तक पहुंचती है। वे उसे इस आरोप में गिरफ़्तार करते हैं कि जिस वक़्त बिना शक और सवाल के जंग में जूझना ही राष्ट्रीय कर्तव्य था, वह इस तरह की कविता लिखकर अपनी कमज़ोरी तो ज़ाहिर कर ही रहा था, इसका ख़तरा भी था कि यह भावना दूसरों को भी कमज़ोर कर दे।
इस घटना को उस नौजवान कवि के बाक़ी चार दोस्त कई साल बाद याद कर रहे हैं। लेकिन आख़िर इस कविता का पता अधिकारियों को चला ही कैसे, उनमें से एक की पत्नी पूछती है। क्योंकि इसके बारे में तो पांच गहरे दोस्तों को ही पता था!
सवाल का जवाब कोई देता नहीं लेकिन यह उन्हें मालूम है कि अपने दोस्त की जासूसी उन्हीं में से किसी ने की थी। वह दोस्त कायर न था। वह जंग से भागा भी न था। लेकिन युद्ध कैसे हमें अमानवीय और बेहिस बना डालता है, वह इस बात को ज़रूर समझ गया था और उसने अपनी इस भावना को सिर्फ अपनी कविता की डायरी में दर्ज कर दिया था।
चेंगेज आइत्मातोव के नाटक फूजियामा का यह स्तब्धकारी दृश्य है जिसमें चार दोस्त पहली बार इस भयानक सत्य का सामना करते हैं कि उन्होंने अपने दोस्त को राष्ट्रीय वफ़ादारी के नाम पर तबाह कर डाला था। लेकिन स्टालिन के वक़्त की यह सचाई थी। दोस्त, दोस्त की जासूसी कर रहा था, पत्नी, पति की और पड़ोसी, पड़ोसी की।
‘जब पुलिस उसे लेने आई और उसके साथ जाने से पहले वह सोती हुई बेटी को चूमने आया, तो मैं दरवाजा रोक कर खड़ी हो गई, क्योंकि मैं उस गद्दार के सपर्श से अपनी बेटी को दूषित नहीं होने देना चाहती थी’ यह उस वक्त की एक ऐसी पत्नी का बयान है जिसने पार्टी की आलोचना करने वाले अपने पति की रिपोर्ट पुलिस को की थी।
माओ की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान ऐसी अनेक घटनाएं हुईं जिनमें स्कूल के बच्चे अपने शिक्षकों की न सिर्फ रिपोर्ट कर रहे थे बल्कि उन्हें सार्वजनिक रूप से पीटे और बेइज्जत किए जाने में भी खुशी-खुशी शामिल हो रहे थे।
आयातुल्लाह खुमैनी की इस्लामी क्रान्ति के बाद उनके प्रति वफादार छात्रों की मिलीशिया विद्यालयों पर नज़र रही थी और हर उस शख्स की – जो क्रांति के प्रति तनिक भी शंकालु प्रतीत होता था – निशानदेही करने को अपने कर्तव्य के रूप में देखती थी। प्रत्येक निरंकुश सत्ता, वह साम्यवाद के नाम पर हो या किसी धर्म के नाम पर, दो तरह के लोग पैदा करती है – वफादार और गद्दार। तीसरे की कल्पना संभव नहीं है। वफादार इसे अपना कर्तव्य और अधिकार मानते हैं कि वे गद्दारों को सजा दें या दिलवाने में मदद करें। बीसवीं सदी के इतिहास को पलट कर देखने पर साम्यवादी सोवियत संघ और इस्लामी ईरान की सत्ता के व्यवहार में शायद ही कोई फर्क नज़र आए। खासकर उनके प्रति जो इन सत्ताओं को लेकर ज़रा भी आशंका या शिकायत रखते थे। वे दुश्मन और गद्दार थे और उन्हें आज़ाद रहने का हक न था।
‘रीडिंग लोलिता इन तेहरान’ अज़ार नफ़ीसी का संस्मरण है जिसमें वे आयातुल्लाह की इस्लामी क्रान्ति के बाद के ईरान में विश्वविद्यालय के जीवन की याद करती हैं। वे उन छात्राओं की बात करती हैं जिन्हें नैतिकता रक्षक स्क्वाड ने दो रोज़ तक गिरफ्तार रखा और जिनके क्वारेपन की जांच डॉक्टरों ने छात्रों के सामने ही की और फिर उन्हें पच्चीस-पच्चीस कोड़े लगाए गए।
नफीसी बताती हैं कि विश्वविद्यालय धीरे-धीरे उपन्यास पढने-पढ़ाने के लिए खतरनाक जगहों में बदल गए। कक्षाओं में मिलीशिया के सदस्य ‘आपत्तिजनक’ किताब पढ़ने पर ऐतराज करने लगे। इस संस्मरण के एक दिलचस्प अध्याय में नफीसी ‘द ग्रेट गैत्स्बी’ नामक उपन्यास को कठघरे में खड़ा करके उस पर मुक़दमा चलाती हैं। वे ऐसा इसलिए करती है कि क्रान्ति समर्थक एक छात्र इस उपन्यास को क्रान्ति के आदर्शों के खिलाफ मानते हुए उसने मिलता है। नफीसी, नियाजी नामक इस छात्र को ‘द ग्रेट गैत्स्बी’ पर आरोप लगाने और उन्हें सिद्ध करने का काम देती हैं।
यह पूरा मुकद्दमा आज हमें पढ़ने की ज़रूरत है। लेकिन इसमें फिर भी संवाद की एक संभावना बनी रहती है। एक वक्त तो ऐसा आता है कि उपन्यास पढ़ना अपने आप में ही एक खुफिया कार्रवाई में बदल जाता है। यह सब कुछ किस प्रक्रिया से होता है जिसमें अच्छे-खासे लोग खुद को सत्ता के हवाले कर देते हैं और अपने सारे मानवीय संबंधों को न सिर्फ स्थगित करने, बल्कि उन्हें उन आदर्शों में विलीन कर देने को तैयार रहते हैं जिनका प्रतिनिधित्व वह सत्ता कर रही होती है? जब तक वे यह पहचानें कि दरअसल उन्होंने खुद के साथ क्या किया था, काफी देर हो चुकी होती है।
सांस्कृतिक क्रान्ति के चीन के दौर में साम्यवादी क्रान्ति के रक्षकों में से कइयों ने सालों बाद उस दौर को याद किया और इस पर पछताए कि उन्होंने अपने घरवालों, पड़ोसियों, दोस्तों को एक ऐसे आदर्श की बलिवेदी पर चढ़ाया, जो अपने आप में मिथ्या निकला। स्टालिन की साम्यवादी क्रांति भी मिथ निकली और अब सांस्कृतिक क्रान्ति का चीन बहुत पीछे छूट चुका है। उस समाज का क्या हुआ, जिसने अपने लिए इन्हें सोचने का जिम्मा दे दिया था? यह सब दूसरे वक्तों और दूसरे मुल्कों के किस्से हैं। लेकिन क्या हम इसे लेकर निश्चिंत हैं?
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