जावेद अंसारी
यूपी विधानसभा का चुनावी रण निपट गया, पार्टियों और प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला ईवीएम मशीनों में बंद हो गया, सपा-कॉंग्रेस गठबंधन नेता अखिलेश यादव व राहुल गांधी चुनाव में 300 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं, बसपा सुप्रीमो मायावती भी बहुमत मिलने का दावा कर रही हैं, भाजपा भी पीछे नहीं है, इस पार्टी के नेता भी 265 प्लस का दावा कर रहे हैं।
मतलब सभी दलों का दावा बहुमत मिलने का ही नहीं बल्कि दो तिहाई सीटें जीतने का है, पर, यह सवाल अपनी जगह है कि अगर ऐसा न हुआ तो फिर क्या होगा, क्या नए समीकरण बनेंगे, मौजूदा दोस्त किसी नए के साथ जाएगा तो दुश्मन, दोस्त बन जाएगा, इनका उत्तर नतीजों के बाद ही मिल पाएगा, लोगों के दिल व दिमाग में यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि चुनावी रण सात चरण में पूरा हुआ है, हर चरण का ट्रेंड अलग-अलग तरह का देखा गया है। इसलिए भले ही सभी प्रमुख राजनीतिक दल चुनाव बाद अपनी-अपनी पार्टियों की सरकार बनने का दावा कर रहे हों लेकिन एक संभावना यह भी जताई जा रही हैं कि पार्टियां बहुमत के लिए तय 202 सीटों का आंकड़ा हासिल करने से कुछ पीछे रह जाएं, जाहिर है कि उस स्थिति में सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए किसी न किसी नए साथी को साथ लेना पड़ेगा, इससे मौजूदा समीकरणों में कुछ न कुछ बदलाव जरूर होगा, वैसे अतीत में भी कई ऐसे प्रसंग सामने आ चुके हैं जब चुनाव पूर्व गठबंधन नतीजों के बाद नए समीकरणों के चलते टूटे हैं या फिर नए गठबंधन सामने आए हैं।
सपा-कॉंग्रेस गठबंधन के पास ये हैं विकल्प, सपा-कॉंग्रेस गठबंधन को अगर बहुमत न मिला लेकिन सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। तब उसके सामने पहला विकल्प रालोद और निर्दल होंगे, भले ही रालोद और सपा में चुनाव से पहले गठबंधन पर बात न बन पाई हो लेकिन सरकार बनाने की स्थिति बनी तो सपा-कॉंग्रेस गठबंधन के साथ रालोद धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजूबती देने के तर्क के साथ हाथ मिला सकता है, सरकार में शामिल हो सकता है, निषाद पार्टी या अन्य छोटे दल जीतते हैं तो विधायकों का भी समर्थन सरकार बनाने के लिए इस गठबंधन को मिल सकता है, वैसे तो सपा और बसपा को दो धुर विरोधी दल माना जाता है, पर, बसपा की सीटों का आंकड़ा गठबंधन और भाजपा दोनों से पीछे रहा तो जंग व सियासत में कुछ भी असंभव नहीं की कहावत भी चरितार्थ हो सकती है, ऐसी स्थिति में एक संभावना यह हो सकती है कि भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए बसपा तटस्थ भूमिका अपनाकर सपा-कॉंग्रेस गठबंधन के लिए सरकार बनाने व विश्वासमत हासिल करने का रास्ता आसान कर दे, वैसे भी ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि सपा की कमान अब उन मुलायम सिंह यादव के हाथ में नहीं है जिनके मुख्यमंत्रित्व काल में गेस्ट हाउस कांड हुआ था, यही नहीं, मायावती की तरफ से शिवपाल को लेकर लगातार नरम रुख भी किसी नए समीकरण का सूत्रधार बन सकता है।
सपा-कॉंग्रेस के पास ये भी होंगे विकल्प
सपा-कांग्रेस गठबंधन को रालोद, अन्य छोटे दल व निर्दलीय दे सकते हैं समर्थन।
सुनने में अटपटा लग सकता है लेकिन धुर विरोधी सपा-बसपा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हाथ मिला सकते हैं।
बसपा के सामने मौजूद रास्ते,
अगर बसपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन उसकी सीटों का आंकड़ा बहुमत तक न पहुंचा, उस स्थिति में बसपा के सामने एक विकल्प तो सपा जैसा ही होगा, जिसमें वह रालोद, निर्दलीयों या अन्य छोटे दलों को सरकार में शामिल कर सरकार बना लें, रालोद पहले भी विधानपरिषद चुनाव में बसपा का समर्थन कर चुका है, दूसरा रास्ता कॉंग्रेस का साथ है, भले ही कॉंग्रेस का आज सपा के साथ गठबंधन है लेकिन यहां भी सियासत में सब जायज वाली कहावत लागू होती है,बसपा केंद्र की यूपीए सरकार को भी समर्थन देती रही है, इस चुनाव प्रचार में भी खास बात यह ध्यान में रखने वाली है कि मायावती या राहुल गांधी ने एक-दूसरे पर प्रहार नहीं किए हैं, रही बात भाजपा से साथ की तो बसपा के साथ गठबंधन या समर्थन से प्रदेश में तीन बार सरकारें बनी हैं, पर, इस बार दोनों के एक साथ होने की संभावना काफी क्षीण है, मायावती खुद कह चुकी हैं कि बहुमत न भी मिला तो वह भाजपा से हाथ मिलाकर मुसलमानों को धोखा नहीं देंगी, सरकार बनाने के बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी।
बसपा के पास ये भी विकल्प मौजूद,
बसपा को सपा की तरह रालोद, छोटे दलों, निर्दलीयों का समर्थन मिल सकता है। सरकार बनाने के लिए सपा के साथ गठबंधन में शामिल कॉंग्रेस की मदद ली जा जा सकती है।
भाजपा के पास सीमित समीकरण,
अगर बसपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन उसकी सीटों का आंकड़ा बहुमत तक न पहुंचा, उस स्थिति में बसपा के सामने एक विकल्प तो सपा जैसा ही होगा, जिसमें वह रालोद, निर्दलीयों या अन्य छोटे दलों को सरकार में शामिल कर सरकार बना लें, रालोद पहले भी विधानपरिषद चुनाव में बसपा का समर्थन कर चुका है, दूसरा रास्ता कॉंग्रेस का साथ है, भले ही कॉंग्रेस का आज सपा के साथ गठबंधन है लेकिन यहां भी सियासत में सब जायज वाली कहावत लागू होती है। बसपा केंद्र की यूपीए सरकार को भी समर्थन देती रही है। इस चुनाव प्रचार में भी खास बात यह ध्यान में रखने वाली है कि मायावती या राहुल गांधी ने एक-दूसरे पर प्रहार नहीं किए हैं। रही बात भाजपा से साथ की तो बसपा के साथ गठबंधन या समर्थन से प्रदेश में तीन बार सरकारें बनी हैं, पर, इस बार दोनों के एक साथ होने की संभावना काफी क्षीण है, मायावती खुद कह चुकी हैं कि बहुमत न भी मिला तो वह भाजपा से हाथ मिलाकर मुसलमानों को धोखा नहीं देंगी, सरकार बनाने के बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी।