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भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने आज़म को दी क्लींन चिट

“बुलंदशहर गैंगरेप पर आजम खान के बयान को बताया बोलने की आजादी”

नई दिल्ली, (हर्मेश भाटिया)

भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी का कहना है कि आजम खान द्वारा दिया गया रेप से सम्बन्धित बयान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है। रोहतगी ने यह बात कल बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से कही। मुकुल रोहतगी ने कहा कि समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान का बयान संविधान की धारा 19 (1) (a) यानी बोलने की आजादी के प्रावधान में आता है। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री आजम खान ने कहा था कि बुलंदशहर गैंग रेप राजनीतिक साजिश का हिस्सा है और हो सकता है कि यह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि को नुकसान पहुंचाने के मकसद से किया गया हो।

सुप्रीम कोर्ट ने आजम खान को इस टिप्पणी के लिए फटकार लगाई थी और पूछा था कि क्या कोई मंत्री इस तरह का बयान दे सकता है, खासकर यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में। पीड़िता के पिता ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर आरोप लगाया था कि आजम खान की इस टिप्पणी के कारण मामले की जांच को प्रभावित करेगा। उन्होंने कोर्ट से केस को यूपी से बाहर स्थानांतरित किए जाने की अपील की थी। बाद में आजम खान ने अपने बयान के लिए बिना शर्त माफी मांग ली थी और कोर्ट ने उनके खिलाफ मामला रद्द कर दिया था।
जस्टिस दीपक मिश्रा और एमएम खानविलकर की बेंच के सामने अटॉर्नी जनरल ने कहा कि आजम खान का बयान बोलने की आजादी के दायरे में आता है। रोहतगी ने दलील दी कि अगर किसी को आजम के बयान से तकलीफ पहुंची हो तो वह उनके खिलाफ मानहानि का केस कर सकता है। एजी रोहतगी ने बेंच से कहा,’संविधान ने धारा 19(2) के तहत पहले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कई बंदिशें लगाई हैं। ऐसे में अगर इसमें और प्रावधान जोड़े गए तो इससे बोलने की आजादी को खतरा होगा। नतीजन नेता, मशहूर हस्तियां और पत्रकार खुलकर अपनी बात नहीं रख पाएंगे।’ हालांकि कोर्ट अभी अध्ययन कर रही है कि क्या बोलने की आजादी पर निजता के अधिकार का असर पड़ सकता है। निजता का अधिकार जीने के अधिकार (संविधान की धारा 21) से जुड़ा हुआ है, खासकर यौन उत्पीड़न से सम्बन्धित मामलों में।
बेंच ने मुकुल रोहतगी की दलील के जवाब में कहा,’आप यह मत भूलिए कि यौन हमलों के मामलों में महिलाएं ही सबसे ज्यादा तकलीफ झेलती हैं। इससे उनकी पहचान और गरिमा दोनों प्रभावित होती है।’ एमस्कस क्यूरी (कोर्ट की मदद के लिए सरकार द्वारा नियुक्त वकील) फली एस. नरीमन ने कहा कि उन्होंने जीने के अधिकार के नजरिए से अभिव्यक्ति के अधिकार का अध्ययन नहीं किया है। उन्होंने दोनों के अध्ययन के लिए दो हफ्ते का वक्त मांगा ताकि दोनों अधिकारों के बीच उचित तालमेल बिठाया जा सके।
बेंच ने कहा,’प्रमुख मुद्दा यह है कि क्या बोलने की आजादी यानी संविधान की धारा 19 (1) (a) को संविधान की धारा 19 (2) (बोलने की आजादी की सीमाएं) से ही कंट्रोल किया जा सकता है? या जीने के अधिकार (धारा 21) के तहत आने वाले बाकी मूलभूत अधिकारों का भी इसमें दखल हो सकता है?’ सीनियर ऐडवोकेट हरीश साल्वे ने इस मसले को हल करने में कोर्ट की मदद करने का प्रस्ताव दिया, जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। साल्वे ने कहा कि चूंकि बोलने की आजादी की कुछ तय सीमाएं हैं इसलिए यह असीमित नहीं है। मामले की अगली सुनवाई 20 अप्रैल को है।
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