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वीनस दीक्षित की कलम से – नारी – तू कब तक रहेगी अबला

चलो साहेब कोई बात नहीं सड़क चलती किसी की बहन बेटी को भेडियो के नज़र से घूरने वालो के आँखों से बचते हुवे, खुद की जहेज की लालच में किसी की बेटी को जिंदा जलाने वाले के मिटटी के तेल और माचिसो से सुरक्षित रहते हुवे, गर्भ में ही कन्या भ्रूण को मार देने वालो के कातिल हाथो से बचते हुवे आप सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाये, चलो आज तो खूब वायदे हुवे होंगे खूब महिलाओ को सम्मानित किया गया होगा खूब महिलाओ के लिए मंचो पर बैठ कर बड़ी बड़ी बाते हुई होंगी खूब कसमे खाई गई होंगी कुब वायदे किये गए होंगे बस अब  नारी पर अत्याचार बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. ये सब उस पुरुष प्रधान समाज द्वारा किया जा रहा होगा जिस पुरुष समाज के सामने ज़ख़्मी हालत में एक दामिनी दिल्ली कि सडको पर पड़ी थी और हर आहट पर उसकी बंद आँखे उसके मन के अन्दर मदद की उम्मीद जागती होगी मगर मदद ह्ह्ह वो क्या होता है. आज वो समाज भी महिला दिवस की बधाई दे रहा होगा जो सामने से गुज़रती लड़की और महिलाओ पर फ़ब्तिया कसने से बाज़ नहीं आते. कमबख्त समझ में नहीं आता की आखिर क्यों सभी गालिया केवल औरतो के लिए क्यों बनी है जैसे मा की, बहन की, बेटी की. कोई मर्दों के लिए गाली क्यों नहीं बनी जैसे बाप की भाई की या फिर बेटे की, मगर छपास रोग के ग्रसित समाज के एक वर्ग द्वारा महिला दिवस की शुभकामनाये दिया जा रहा है आइये इस महिला दिवस पर महिलाओ के वर्त्तमान अस्तित्व की चर्चा करते है

जिंदगी के हर मोड़ पर खुद को साबित करने वाली नारी को आज भी अबला नाम से संबोधित किया जाता है। आज उसी अबला कि दास्ताँ किसी रोमांच से कम नहीं होती। जिंदगी के हर मोड़ पर उतार चढ़ाव से गुज़र कर अपने अनुभव के ताल मेल से घर के कोने – कोने में पूजे जाने वाली घर की ओरत माँ लक्ष्मी कहलाती है। वैसे तो औरत शक्ति का अंश मानी जाती है, लेकिन समाज कि लीला कितनी न्यारी जब माँ के गर्भ से लेकर धरती पर आने के सफर तक उसको लाखों मुश्किलें झेलनी पड़ती है। अजीब है पर सच है थोडा बड़ी होने पर बेटी को देवी के रूप में घर -घर पूजा जाने लगता है, उनके पैरो को माथे सर लगाया जाता है  यही समाज बेटी के किशोरवस्था में पहुँचने पर उनके पैरो की बेड़िया बन जाता है।युवती बन जाने पर बार बार अपनी झूठी शान के लिए उसको याद दिलाया जाता है कि तू एक लड़की मेरे खानदान की इज्जत अब तेरे हाथ में है ये कह कर समाज  परिवार अपना पल्ला झाड़ नाजुक बेटी के कंधो पर डाल वे खुद मोज करने निकल पड़ते है। सुनी आँखो में ख्वाव के पन्ने चूमढ़े हुये दफ्न हो जाते है। क्यों याद दिला गए घर के आँगन में गोंटी किचन में पकवान बनती घर के किसी महत्वपूर्ण काम में दखल न देती क्या नारी तेरी यही पूरी कहानी है।
छोटी सी जिंदगी में लंबा सघर्ष औरत का ही क्यों? बचपन से बंदिशों के जंजीर में कैद कर जीवन क़ी चाबी बाप, भाई और शादी  के बाद पति के हाथ मे दे दी जाती है। नारी का अस्तिव नर से और नारी से नर दोनो एक दूसरे के पूरक है सृष्टि (प्रकति) का निमय है कि दोनों मे से किसी एक को हटा दिया जाये तो समाज का अस्तिव खत्म हो जयेगा। इसका अर्थ कि प्रकृति ने दोनों को समान अधिकार दिया है।  पुरुष हो या महिला समाज के लिये बराबर के भागीदार है जब प्रकृति ने नर और नारी को बराबर सम्मान दिया तो समाज क्यों नहीं दे सकता। आज के आधुनकि दौर में भी अधिकतर महिलाओ की ताउम्र घर परिवार में सीमट कर रह जाती है। ये जान कर आपको ताजुब्ब होगा कि आज भी कई जगहों पर लड़किया घर कि देहलीज़ लांघने न दी जाती है। जन्म लेते मार दिया जाता था। क्यों सृष्टि की रचना को स्वीकार करने में समाज इतना समय ले रहा है ऐसे ही लाखो सवालो को दिलो में रखकर महिला दिवस पर शुभकामनाये तो देना ही है.
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