दुष्यन्त यादव
यह क्रम यहीं नहीं टूटता। होली का रंग परंपराओं को तोड़ते हुए गीत के माध्यम से गोरी की कलाई,आंख,कमरसे होते हुए चोली की वर्णन कर फागुनी गीतों को परे धकेलता हुआ अपना रंग जमाने लगा है। अब न तो ढोलक की थाप पर चैता-चैपाल सुनाई पड़ रही है और न ही समूहों द्वारा गाये जाने वाले फगुआ गीत। सनद रहे कि होली पर गाये जाने वाले गीतोंके अंदर विशेष भाव छिपे रहते थे। चाहे पिया के वियोग में विरहनी द्वारा फागुन मास में गाये जाने वाले गीत हों या सबकुछ भूल कर होलीके रंग में आह्लादित होकर गाये जाने वाले फगुआ गीत सभी का लोक होताजा रहा है। गांव-गांव मुहल्ले में होने वाले होलिका दहन की परंपरा भी महज औपचारिकता बन कर रह गयी है और बुकवा की र्झिरी को छुड़ाकर उसे पांच उपलों(गोइंठा)पर रखकर उसे सम्मत में डालने को दृश्य भी समाप्ति की तरफ है।एक दशक पूर्व तक होली के पूर्व होलिका स्थापित कर ईष्र्या, क्रोध वकुपृव्रत्तियों को जलाने की परंपरा में व्यापक सामाजिक सहभागिता सुनिश्र्वित की जाती थी। इसी के तहत होलिका में कुछ न कुछ हर घर से डालने की भी परंपरा थी। बदलते परिवेश में यह भी समाप्ति की तरफ है। होली के पखवारे भर पूर्व से गाये जाने वाले रस भरे लोक गीतों का स्थान फूहड़ गीतों ने ले लिया है। वृद्ध रामदेव सहेतू आदि का कहना है कि पहले होली में गाये जाने वाले गीतों में सामाजिक उत्कर्ष की भावना निहित होती थी व उसमें आंतरिक आद्रता की झलक मिलती थी। परंपराओं के प्रति अब लोगों में वह छोह नही रह गया है जबकि पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ ने भी हमारी परंपराओं को पीछे धकेला है। लोगों ने कहा कि सतह पर जीने की आदत भी हमें किसी चीज के अंदर झांकने से रोकता है यही वजह कि हम अपनी पवित्र परंपराओं के प्रति विरक्त होते जा रहें हैं और आधुनिकता की तलाश में पुरानी और परम्परागत चीजों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं ।यही हाल रहा तो होली में होने वाली परम्परागत चीजों को आने वाली पीढ़ियों के लोग सिर्फ कहानी की किताबों में पढेंगे।
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