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प्राची पाठक की कलम से एक कविता – नारी

नारी
जो थी जननी,भगनी,वामा,
माता ,पालनहारी,
ममता की वो मूरत,
सुख – दुःख में सबकी जरूरत
सृष्टि संचालन में थी ,

उसकी भी आधी भागीदारी ,
धीरे –धीरे मत्रेत्व ही बोझ बना
दल दल बनी ममता की गलियारी,,
निज संतति की शुभकामना मे
पुरुष का दासत्व बना लाचारी ,
मन भयभीत तन कमजोर हुआ ,
सदियों तक बनी रही अबला  बेचारी ,
किसी  ने अशिक्षा के परदे में दम तोडा,
कोई जली देहज की ज्वाला  में ,
कोई अजन्मी ही गई मारी,
शिक्षा की जब चली बयार ,
जली अज्ञान की अंधियारी ,
आजादी की अंगडाई ले,
दो डग भर भी पाई नारी ,
सबक सिखाने को उसको ,
फिर बनाने को अबला बेचारी ,
संघष की आग बुझाने को ,
कुछ  बन बैठे है बलात्कारी ,
(प्राची पाठक)
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