करिश्मा अग्रवाल (विशेष संवाददाता)
मानव जीवन में शिक्षा की महत्ता से हम सभी अवगत हैं।शिक्षा जो एक मानव को सही अर्थों में मानव बनाने का कार्य करती है। प्राचीन काल में प्रचलित ‘गुरुकुल शिक्षा प्रणाली’ के बारे में तो सभी ने जरूर सुना होगा।इसके अंतर्गत, गुरु शिष्य को संतान समान समझ नि:स्वार्थ भाव से उसके उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु,उसे शिक्षा प्रदान कर पुरे मनोयोग से ज्ञानी व गुणी बनाने का प्रयास करता था।वहीँ शिष्य भी ,गुरु को पिता तुल्य समझ,ईश्वर के समान सम्मान दिया करता था।
जब बदल गई शिक्षा – ‘व्यापार’ में :
परंतु समय बदला,हालात और व्यवस्थाएँ भी। ईश्वर का रूप समझी जाने वाली शिक्षा प्रणाली कब पूरी तरह ‘व्यवसायिक प्रणाली’ में बदल गई ,पता ही नहीं चला।हाल ये हुआ की,शिक्षा व्यवस्था में अब ‘शिक्षा’ गौण हो गई और व्यापार ‘सर्वेसर्वा’। आज ,हर अभिभावक का सपना अपने बच्चों को प्रतिष्ठित ,बहुमंजिले, एसी और Wi-Fi सुविधाओं से लैस स्कूलों में शिक्षा दिलाने का बन चुका है। इसी का लाभ उठाते हुए निजी स्कूल-कॉलेज संस्थान पूरी तरह बेशर्मी के साथ अभिभावकों की जेब काटने की खुली लूट में व्यस्त हैं।
क्या हैं हालात :
प्रत्येक वर्ष नए शैक्षिक सत्र के आरंभ में निजी स्कूल कॉलेजों द्वारा नए कॉपी, किताब (जो मामूली बदलाव के साथ हर साल बदल दी जाती है ),स्कूल ड्रेस, बैच, ‘किट’ जहां तक की स्कूल बैग ,फोल्डर ,जूतों के नाम पर भी अभिभावकों से जमकर रूपया वसूला जाता है। बाकी रही सही कसर ‘फीस’ जोकि अभिभावकों को देनी ही देनी होती है ,पूरी कर देती है ।स्कूल बस की सुविधा के नाम पर भी कई गुना फीस वसूली जाती है। डोनेशन ,डेवलपमेंट ,कल्चरल एक्टिविटी एक्टिविटी जैसे जाने कितने ही नामों से कई गुना शुल्क वसूला जाता है ,जोकि अनिवार्य होता है या यह कहे की ‘मजबूरी का दूसरा नाम….’!
तय रहता है कमीशन :
सिर्फ इतने से ही बात खत्म नहीं होती ! हद तो तब हो जाती है ,जब यह सब शिक्षण सामग्री जिसे लेना स्कूलों के मुताबिक ‘अनिवार्य’ होता है, उनके द्वारा बताई गई एक ‘दुकान विशेष’ से खरीदी जाना आवश्यक होती है ।इन निजी स्कूल कॉलेजों और ऐसी निश्चित दुकानों का आपस में कमीशन पहले से ही तय रहता है ,जो 50 से 60 प्रतिशत तक होता है। अब क्योंकि किसी और स्थान से खरीदी गई कॉपी, किताबें और किट आदि ‘वैध’ नहीं होती हैं, इसलिए मजबूर अभिभावक ना चाहते हुए भी सामान्य प्रचलित मूल्यों से कई गुना अधिक मूल्य चुका कर इस खुली और सभ्य लूट का हिस्सा बनने को मजबूर हो रहे हैं।
कई संस्थान तो बन गए ‘दुकान’ :
कई संस्थान तो ऐसे भी हैं ,जो किसी और से कमीशन तय करने के स्थान पर खुद ही सीधे इन शिक्षण सामानों की बिक्री कर रहे हैं ।जिसे की एडमिशन लेते समय ‘किट’ के नाम पर खरीदना मजबूरी होता है।अरे नहीं! संस्थानों की भाषा में अगर कहें तो “यह तो जरूरी होता है…।”
आखिर क्यों लूट सहते हैं अभिभावक ?
अब प्रश्न यह उठता है कि ,आखिर शिक्षा के नाम पर ऐसी खुली शर्मनाक लूट-खसोट और व्यापार के खिलाफ अभिभावक आखिर चुप क्यों रहते हैं! तो इसके बहुत सारे जवाब है। पहली बात,अव्वल तो कोई अभिभावक इस मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने से डरता है ।और अगर कोई आवाज उठाता भी है तो बाकी अभिभावकों के ‘समुचित समर्थन’ ना मिलने के कारण वह आवाज यह कहकर खामोश कर दी जाती है कि, “जब दूसरों को दिक्कत नहीं तो आपको परेशानी क्यों हो रही है.. ?”
क्या है अभिभावकों की खामोशी के पीछे छुपी मानसिकता:
अभिभावक निजी संस्थानों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते ,क्योंकि शायद वह अपने बच्चों के ‘अंग्रेजी की नींव’ पर बनने वाले भविष्य पर कोई ‘संकट’ खड़ा नहीँ करना चाहते ।क्योंकि जेब पर पड़ रहा बोझ तो जैसे-तैसे वह सह लेंगे ,परंतु निजी संस्थानों का विरोध करने के बाद उनके द्वारा उनके बच्चों को दी जाने वाली ‘असुविधा’ और ‘परेशानी’ का डर,अभिभावकों की आवाज को कभी बुलंद नहीं होने देता। और रही-सही हिम्मत ‘स्टेटस’ खराब हो जाने के डर के कारण भी दम तोड़ देती है ,की कोई यह ना कह दे कि, “आपको ही ज्यादा परेशानी है…आजकल तो ऐसा ही होता है…।”
आखिर कब तक सहेंगे यह निरंकुशता:
अभिभावकों और प्रशासन की खामोशी के कारण ही निजी संस्थानों की यह ‘निरंकुशता’ निरंतर दिन प्रति दिन पोषित हो रही है। इसी कारण,कोई गरीब या निम्न मध्यमवर्गीय व्यक्ति इन संस्थानों में अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने का सपना नहीं देख पा रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि, हम निजी संस्थानों की मनमानियों को सिर्फ प्रशासन का उत्तरदायित्व ना मानते हुए बिना किसी संकोच और भय के इनकी मनमानियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें। क्योंकि वह हम भी हैं ,जो इन संस्थानों को ऐसा करने दे रहे हैं ।जब हम आवाज उठाएंगे तभी तो हम प्रशासन को भी इसके लिये कार्यवाही करने के लिए कह पाएंगे ।पर अगर शुरुआत किसी से होगी तो वो आपसे।
जरूर विचार कीजिएगा।
वरना यह आवाज़ भी आवाज़ ही रह जायेगी।
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अच्छी रिपोर्टिंग