आजकल राजनीति में भाषा के गिरते हुए स्तर का मुद्दा गरमाया हुआ है। इस गिरावट का संबंध सीधे हमारे नव उदारवादी आर्थिक तंत्र से है। सभी राजनीतिक दलों की आर्थिक नीतियां कमोबेश नव उदारवादी ही हैं। मुनाफे पर केंद्रित ये नीतियां न तो रोजगार पैदा कर सकती हैं और न समाज को आर्थिक और चिकित्सीय सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं। इसलिए राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, कृषि विकास आदि का जिक्र तो होता है, पर उनके पनपने के लिए कोई रूपरेखा नहीं होती। नव उदारवाद का दर्शन आर्थिक प्रगति के लिए पलायन को महत्त्वपूर्ण मानता है जबकि चुनावी राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए उनकी सरकार आ जाने पर पलायन रोकने की बात करते हैं। भोले किसानों को यह मालूम नहीं होता कि पलायन रुक जाएगा तो शहरों की फैक्टरियों में सस्ता श्रम कहां से आएगा? नव-उदारवाद का मूल दर्शन ही यही है; गांवों की बर्बादी से शहरों की आबादी!
रोजगार का भी यही हाल है। लोगों की क्रय शक्ति बिल्कुल क्षीण है, इसलिए बाजार में मांग नहीं है। मांग न होने के कारण उत्पादन नहीं हो रहा है, नए उद्योग-धंधे भी स्थापित नहीं हो पा रहे हैं। इस कारण पुरानी नौकरियां तेजी से खत्म हो रहीं हैं और नई नौकरियों का सृजन नहीं हो पा रहा है। राजस्व में लगातार कमी हो रही है, इसलिए कल्याणकारी योजनाएं भी गायब होती जा रही हैं या सिर्फ नाम की बची हैं। इससे निम्न और मध्य वर्ग बड़ी तेजी से तबाह हो रहा है। मुक्त बाजार ने एक बड़े तबके को जंजीरों में बांध लिया है। कोई भी राजनीतिक दल इन नीतियों के चलते न तो रोजगार पैदा कर सकता है और न कमजोर तबकों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा प्रदान कर सकता है। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक रैलियों और संसद में इन मुद्दों पर बहस नहीं की जा सकती, क्योंकि इनके क्रियान्वयन के लिए रूपरेखा किसी के पास नहीं है। हां, बस इनका नाम लेकर खानापूर्ति जरूर की जा सकती है, सो नेता लोग कर भी रहे हैं।
इसलिए अब बचता क्या है खुद को दूसरों से बेहतर दिखाने और जनता को अपने सम्मोहन में जकड़े रहने के लिए? हां, अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद करने के लिए उनका सार्वजनिक मजाक उड़ाना और उनके विरुद्ध निम्न स्तर के शब्दों का प्रयोग करना; ऐसे शब्दों का प्रयोग जो आपकी पहचानवादी राजनीति को भी मजबूत आधार प्रदान करें और जनता की धार्मिक व जातीय गोलबंदी करें। इसलिए कसाब, कब्रिस्तान-श्मशान, एंटी दलित मैन, बहनजी संपत्ति पार्टी और गुजरात के गधे जैसे शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है।
खबरिया टीवी चैनलों की बहसों में भी यही स्थिति है। विभिन्न पार्टियों के प्रवक्ता भी एक दूसरे पर बस चिल्लाते नजर आते हैं। लगता है,एक दूसरे का खून ही पी जाएंगे। उनके पास भी बहस करने को कुछ नहीं है। मीडिया को भी ऐसे बयानों पर बढ़िया कवरेज मिलता है। जनता को भी, जो बेरोजगारी और गरीबी की मार से गुस्साई होती है और धार्मिक व जातीय रूप से बंटी हुई होती है, ऐसी निम्न स्तर की भाषा के प्रयोग पर बड़ा सुकून मिलता है। उसे लगता है कि उसके धर्म व जाति का नेता तो विरोधियों को बुरी तरह से परास्त करके उसकी जिंदगी को स्वर्ग बनाएगा।
हम सब सोचने-विचारने वाले लोगों को भी अब यह उम्मीद छोड़ देनी चाहिए कि कोई नेता अपने विरोधी की आलोचना के लिए मंच पर दिनकर की कविता का अंश पढ़ेगा- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। यहां बस अब एक दूसरे को गालियां दी जाएंगी और सोशल मीडिया पर उन्हें वायरल कराया जाएगा! इस कीचड़ भरे अखाड़े से मुक्ति पाने का बस एक उपाय है- एकजुट होकर इस गंदी राजनीति को नकारना और मुनाफा केंद्रित नव-उदारवादी सामाजिक-आर्थिक तंत्र को बदल कर एक बेहतर, प्रगतिशील और मानवतावादी तंत्र स्थापित करना।