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ईवीएम पर दूर हो भ्रम

वीनस दीक्षित
ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं हो सकती तो तकनीकी दृष्टि से बहुत आगे कई देशों ने इसका प्रयोग बंद क्यों किया या इन मशीनों को क्यों नहीं अपनाया? न्याय का होना ही पर्याप्त नहीं, यह होते हुए दिखना भी चाहिए। खासतौर पर लोकतांत्रिक देश भारत में जिसके बारे में कहा जाता है कि वह जनधारणा (पब्लिक परसेप्शन) पर चलता है। जनधारणा कैसे बनती है, कौन बनाता है और वह कितनी असरदार होती है, यह बड़ी बहस का मुद्दा है लेकिन फिलहाल यह तो सब मानते ही हैं कि लोकतंत्र में जनता अथवा मतदाता की सोच बहुत महत्वपूर्ण है। भले सिद्ध आज तक नहीं हुआ लेकिन जनता ने एक समय मान लिया कि बोफोर्स तोप सौदे में भारी भ्रष्टाचार हुआ तो सरकार बदल गई। वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए।

पिछले आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला तो उसके पीछे कारण कुछ नहीं केवल एक था कि कांग्रेस सरकार भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों से घिरी थी और उसका नेतृत्व कमजोर था। जवाब में भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी का स्पष्ट नेतृत्व था। जनधारणा काम कर गई। मोदी प्रधानमंत्री बन गए। इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को लेकर ऐसा ही विवाद चल रहा है। उन पर अंगुलियां उठाने की शुरुआत उत्तर प्रदेश की हार के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने की। उसके बाद कांग्रेस, आप और शिवसेना तक कई दल उसमें जुड़ गए।
भाजपा कह रही है कि सब हारे हैं तो आरोप लगा रहे हैं। चुनाव आयोग कह रहा है कि ईवीएम में खराबी हो सकती है पर उनसे छेड़छाड़ की कोई गुंजाइश नहीं है। उधर ‘आप’ नेता अरविन्द केजरीवाल ने अपनी आईआईटी की डिग्री ही दांव पर लगा दी है। उन्होंने तो चुनाव आयोग को धृतराष्ट्र तक बता दिया। अब सारी पार्टियां राष्ट्रपति के पास जाने की तैयारी तक कर रही हैं। दावों-प्रतिदावों के इस राजनीतिक खेल में जनता समझ नहीं पा रही कि कौन सही है और कौन गलत?
ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं हो सकती तो दुनिया के तकनीकी दृष्टि से बहुत आगे कई देशों ने इसका प्रयोग बंद क्यों किया या इन मशीनों को क्यों नहीं अपनाया? दूसरा पहलू यह है कि अगर इनमें जोड़-तोड़ संभव है तो वह पंजाब, गोवा और मणिपुर में क्यों नहीं हुई? भ्रम के इस खेल में भाजपा और सरकार से ज्यादा दांव पर चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा है।
यह उसका दायित्व है, वह साबित करे कि जोड़-तोड़ संभव नहीं है। आरोप लगाने वालों को बात साबित करने का ‘खुला मौका’ देना भी अच्छा उपाय हो सकता है। जब तक ऐसा नहीं होगा, चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को ही आघात पहुंचेगा।                                              
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