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देशी प्रदर्शनकारियों पर आँसू गैस का इस्तेमाल होता है, लेकिन यह युद्ध में बैन है, क्यों ?

शबाब ख़ान

सड़कों पर सफेद धुआं फैलता है और विरोध के नारे लगाती प्रदर्शनकारियों की भीड़ तितर-बितर होकर गायब होने लगती है। इसके लिए आंसू गैस ज़िम्मेदार है। भारत में भी विरोध प्रदर्शनों में भीड़ को काबू करने के लिए आँसू गैस का इस्तेमाल होता है।

पहली बार इस गैस का इस्तेमाल अब से 100 साल पहले युद्ध के दौरान किया गया था।
बंकरों में छुपे सैनिकों को बाहर निकालने के लिए इसका प्रयोग किया गया था। गैस की वजह से सैनिक अपने बंकर छोड़ने को मजबूर हो जाते थे। इसके बाद उन पर तोप या अन्य हथियारों से हमला किया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे युद्ध जैसे सशस्त्र संघर्षों में गैस का इस्तेमाल बंद हो गया। साल 1997 में हुए रासायनिक हथियार समझौते के तहत इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इसके साथ ही ये पुलिसवालों के लिए भीड़ हटाने का तरीका बन गई।
दंगा नियंत्रक बनी गैस
बोर्नमथ यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर एना फैगनबॉम बता की हैं कि, “युद्ध में इस गैस को प्रयोग पर रोक लगने की वजह ये है कि इसे हथियार के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता।”
अमरीकी पत्रिका ‘द अटलांटिक’ में उन्होंने लिखा है, “कानून का पालन कराने के मामलों में भी इस गैस को हथियार की तरह नहीं बल्कि स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए किया जा सकता है।”
प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस के प्रयोग की कई जगह निंदा की जा चुकी है। क्योंकि इसके प्रयोग से प्रदर्शनकारियों को स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
इतिहासकारों के बीच पहले विश्व युद्ध में आंसू गैस के प्रयोग पर मतभेद हैं।
लेकिन, ज्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि विश्वयुद्ध शुरू होने के तुरंत बाद अगस्त, 1914 में पहली बार इस गैस का प्रयोग किया गया। अमरीका में प्रथम विश्व युद्ध से जुड़े एक म्यूज़ियम को चलाने वाले डोरन कार्ट कहते हैं कि वे जानते हैं कि इसे सिद्ध करने के लिए कोई आधिकारिक दस्तावेज़ नहीं हैं लेकिन फ्रांस ने शायद सबसे पहले जर्मनी के खिलाफ आंसू गैस का इस्तेमाल किया हो। फ्रांस काफी समय से गैसों पर प्रयोग कर रहा था। लेकिन इनके मुताबिक साल 1915 में गैसों का प्रयोग तेज़ी से शुरू हुआ।
दुनिया की तमाम शक्तियां गैसों का विकास रासायनिक हथियार बनाने के मकसद से कर रही थीं। इसी वजह से प्रथम विश्व युद्ध को रासायनिक युद्ध की तरह देखा गया। आंसू गैस के साथ ही मस्टर्ड गैस, क्लोरीन गैस और फोस्जीन गैस का प्रयोग किया गया।
सयुंक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक, इसकी वजह से लगभग 1 लाख लोगों की मौत हुई। अमरीकी आर्मी वॉर कॉलेज के प्रोफेसर माइकल नीबर्ग के मुताबिक, ” ये गैस प्रथम विश्व युद्ध में हर गलत चीज़ों का प्रतीक बन गईं यानी युद्ध का औद्योगिक चेहरा।”
कुछ साल बाद, 1925 में जेनेवा प्रोटोकॉल पास हो गया। इससे युद्धों में रासायनिक हथियारों पर अहम प्रतिबंध लगा दिए गए। इसी दौरान, आंसू गैस के नए कंपाउंड की टेस्टिंग जारी थी। इसके साथ ही इस बात पर चर्चा चल रही थी कि इसे रोजाना इस्तेमाल के लायक बनाया जाए।
इस गैस के घातक नहीं होने की वजह से इसके इस्तेमाल पर दूसरी गैसों की तरह असर नहीं होता था। फैगनबॉम की जांच के मुताबिक, युद्ध विराम के तुरंत बाद अमरीकी शहरों समेत दुनियाभर में लोगों ने इस गैस को खरीदना शुरू कर दिया जो जेलों, लड़ाईयों और बैंक की सेफों में इस्तेमाल की जाती थी।
अमरीका से आया ये नाम – ‘दंगा नियंत्रक’
वियतनाम युद्ध ने भी गैस के प्रति लोगों की सोच बदलने में मदद की। इस दौरान वियतनाम में युद्ध के दौरान और अमरीका में प्रदर्शनकारियों पर इस गैस के प्रयोग की निंदा हुई। अमरीका ने रासायनिक युद्ध में संलिप्त होने की अपनी निंदा के जवाब में गैस को दंगा नियंत्रक के रूप में दिखाना शुरू कर दिया। येल हिस्टोरिकल रिव्यू के मुताबिक, समय के साथ आंसू गैस को दंगा निंयत्रक कहा जाने लगा। अरब क्रांति से लेकर ब्राजील और इस्तानबुल तक सामने आए तमाम विरोध प्रदर्शनों के दौरान गैस के प्रयोग को देखा गया है।
फैगनबॉम कहती हैं कि आमतौर पर इसे ही प्रयोग किया जाता है क्योंकि ये काफी सस्ती और प्रयोग में आसान है। विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर इसे ठीक ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो खून नहीं निकलता है जो पुलिस के हिसाब से ठीक है। इसके बावजूद प्रदर्शनकारियों को भगाने के लिए इसके प्रयोग की निंदा की गई है। फैगनबॉम के मुताबिक क्योंकि अगर हमारे है थें से शक्ति छीन ली जाए तो प्रदर्शन करने के लिए सड़कें ही बचती हैं।
वो कहती हैं कि ऐसे में अगर हवा में ही ज़हर घोल दिया जाए तो इससे लोगों से विरोध करने की क्षमता छीनी जा रही है।                      
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