ए.एस.खान.
टोल प्लाजा वालों के हाथों सड़कें पहले से बिक चुकी थीं. नीति आयोग ने एयर इंडिया को बेचने की सिफारिश पिछले ही महीने की है और अब रेलवे स्टेशनों को बेचने का फैसला भी हो गया.यातायात के तीनों प्रमुख साधन अब पिज्जा, बर्गर बेचने वालों के जिम्मे होंगे। हम जिन्हें देश चलाने के लिए चुन रहे हैं, वह लोग रेलवे स्टेशन और हवाई जहाज तक चलाने की स्थिति में नहीं हैं। अगर आप सोच रहे हैं कि देश नहीं बिकने दूंगा नारे का मतलब क्या था. तो बस इतना समझ लीजिये. उसका मतलब था देश के ऊपर से बहने वाली हवा नहीं बिकने दूंगा।
मेरे नज़रिये की बात करे तो उद्योगपतियों को फायदे के लिए क्या-क्या नहीं किया? सरकारी अस्पताल बनाए लेकिन वहां कोई सुविधा नहीं दी ताकि लोग प्राइवेट में भाग जाएं. सरकारी स्कूल बनाए लेकिन वहां की स्थिति ऐसी कर दी ताकि लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ले जाएं. बीएसएनएल जैसी सरकारी कंपनी बनाई लेकिन उसकी हालत ऐसी कर दी कि लोग निजी आपरेटरों की सेवा लें।
सोचिये….निजी अस्पताल, निजी स्कूल, निजी मोबाइल कंपनियां चलाने वाले उद्योगपतियों से ज्यादा पैसा सरकार के पास है. उद्योगपति भी सरकारी पैसों से ही धंधा करते है, फायदा हुआ तो उनका, नुकसानं हुआ तो सरकार का,उदहारण देख ले विजय माल्या के तौर पर. जब फायदा था तो कई कलेंडर छाप लिया जाता था जिसमे आप महीनो तक इंतज़ार करते रहे कि कब इस फोटो में से सांप निकल कर अपने घर वापस जायेगा और फिर आया नुक्सान का दौर तो देखते रह गए हम और व्यापारी चला गया लन्दन. अब बुला लो और कर लो वसूली.
वैसे देखा जाए तो प्राइवेट कंपनियों के मुकाबले मेनपावर का तो उनसे ज्यादा मैनपावर सरकार के पास है….उनसे काबिल मानव शक्ति सरकार के पास है….लेकिन हम चलाएंगे नहीं। सेवा सरकारी होगी तो सब्सिडी देनी होगी, उससे गरीबों का फायदा होगा….सेवा निजी होगी तो झकमारकर लोगों को जेब ढीली करनी होगी। सरकारी सेवाएं नहीं होंगी तो सरकारी नौकरी नहीं देनी होंगी….नौकरी नहीं देनी होगी तो रोज-रोज के धरना-प्रदर्शन, आंदोलन और पेंशन जैसी समस्याएं भी नहीं होंगी….बाकि क्या लिखें. बचपन से सुनते आ रहे थे की “इतिहास” अपने आप को दोहराता है। अब यकीन होता जा रहा है.