ए. एस. ख़ाँन
लखनऊ..संसार का प्रत्येक धर्म मानवता एव मानवीय संवेदनाओं को प्रर्थमिक्ता देता है. प्रत्येक धर्म में पाप गुनाह करने वालो के लिये नर्क (जहन्नम) तथा अच्छे कृत्य करने वालों के लिये स्वर्ग (जन्नत) का प्रावधान है. संसार का हर धर्म इस बात को भी मानता है की आस्था दिल से होती है.जो दिल से आस्तिक (मोमिन) होता है उसके दिल में प्रभू का वास (ईमान) होता है. फिर ये कैसी आस्थाए हैं जो सडको पर तमाशा करती फिरती हैं.जो हज़ारों लाखों लोगों के लिये एक दो नही अनेकों दिक्कतों का सबब तो बनती ही है. प्रशासन से लेकर आम जन तक इन तमाशों से हलकान तथा आशंकित रहता है.
मै बात कर रहा हूँ सार्वाजनिक स्थलों, तथा सडकों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों की. अभी रमज़ान में दो धार्मिक जुलूसों के कारण पूरा प्रशासनिक अमला जहां एक ओर हलकान दिखाता. तो वही दूसरी ओर किसी अनहोनी की अशंका से आम जन के चेहरों पर भी ख़ौफ़ साफ़ नज़र आया. दूसरी ओर प्रतिबंधित यातायात के कारण कितनों की ट्रेनॉें छूटीं कितने आफिस देर से पहुँचे तथा न जाने कितने मरीज़ एैसी परिस्तिथी में फस कर हास्पीटल में समय से पहुंचने से वंचित रहकर आकाल मृत्यू शैय्या पर पहुंच जाते है. ये कैसी अस्थाये है जो खुले आम आम आदमी को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर निभाई जाती हैं.
जबकी देश, प्रदेश, जिला, तहसील, से लेकर ग्राम स्तर तक पर्याप्त मात्रा में धर्म स्थल उपलब्ध हैं. मस्जिदें, मंदिरे, ईमामबाडे, धर्मशालायें, ईदगाहें, मठ, रामलीला मैदान, आदि की एक लम्बी श्रृखला होने के बाद भी सार्वाजनिक स्थलों एव पहले से ही जाम की समस्या से जूझती सडकों पर धार्मिक आयोजनों जूलूसों की अनुमति देना जनता को होने वाली असूविधाओं की उपेश्रा कर प्रथम द्रिश्यतः कोरी राजनिती लगती हैै जिसे पिछली सरकारों ने वोट बैंक के लालच में ख़ूब बढावा दिया. किंतु वर्तमान सरकार का उसी निति का अनुसरण समझ से परे है. सरकार को ऐसे आयोजनों को तत्काल प्रतीबंधित कर देने चाहिये तथा धर्म गुरूओं से जवाब तलब करना चाहिये की जो धर्म अपने पडोसी को भी किसी भी प्रकार की तकलीफ़ पहुचानें को जुल्म करार देता हो वो पडोसी चाहे किसी भी धर्म का अनुयाई हो. उसी दर्म के नाम पर सडकों एव सार्वाजनिक स्थानों पर सैकडों मरीज़ो को डाक्टर तक पहुंचने मे बाधा उत्पन्न करना, यात्रियों को गंतव्य तक पहुंचने में, मजदूर को काम पर पहुचने में, कलर्क को आफिस तक पहुचने में बाधाऐं उत्पन्न करके कौन सा पूण्य कमाया जा रहा है. यदि सरकार सच में सबका साथ सबका विकास के ऐजेंडे पर काम करना चाहती है तो सबसे पहले उस कथित धर्म गुरूओं तथा राजनेताओं के गठजोड पर चोट करनी होगी. ऐसे सार्वाजनिक आयोजनों, तथा जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगने से अनेकों धर्म के नाम पर दुकानें नि संदेह बंद होनी तय है तथा प्रशासन को भी चैन से सांस लेने का मौका मिलेगा.
ञात रहे की ऐसे सार्वाजनिक आयोजनों, जुलूसों में आस्था कम प्रतिशोध ज्यादा दिखता है जो कभी भी फूट सकता है तथा शासन और प्रशासन के लिये सिर दर्द बन सकता है. सनद रहे की 1857 के ग़दर के तुरंत बाद अंग्रेज़ों ने मुसलमानों को तीन अलग अलग फिरको के मदरसे दे दिये थे. जहां से वे एक दूसरे के ख़िलाफ़ इल्म खोजने में मस्त रहे तथा अपना वास्ताविक स्वरूप भूल गये, तथा आज़ादी के बाद “दलित और ओबीसी” ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये तरहां तरहां के अनुष्ठान करने लगे. तथा कथित धर्म गुरूओं ने इनके बीच दूरीयां पैदा कर अपनी दुकाने धडल्ले से चलाईं. दलित, मुस्लिम, ओबीसी, ने अपने अपने (परोसे गये) धर्म को अपनी शक्ती समझा. हालाकी वास्ताविक धर्म को तो इन्होने कभी समझा ही नही था. बहुत कम लोग हुऐ जो धर्म का असल मर्म समझ पाये. अब यही मर्महीन लोग रैलियों, जुलूसों, झाकियों में शोर मचानें को धर्म समझते हैं. आपस में एक दूसरे को काफ़िर, मुश्रिक, मलिछः, समझना अब इनका धर्म है, एक दूसरे धर्म पर उंगली उठाना ही अब ये धर्म बना बैठे है. एक दूसरे को हिकारत से देखिये ये धर्म है.
सच माने तो अगर बिना किसी जोर ज़बरदस्ती के अभिव्यक्ति की आज़ादी के तहत कहा जाए तो धर्म की जगहा अब केवल एक दुसरे पर कीचड उछालने और विवाद पैदा करने की निति ने ले ली है. आस्था सडको पर ही सिर्फ दिखाई देती है दिल के अन्दर तो कही दिखाई ही नहीं देती है. सच मानिये तो अब सडको पर टहलते और चहलकदमी करती हुई आस्था पर रोक लगाना शायद ज़रूरी हो गया है. भले ही कथित धर्म गुरु इसके ऊपर एतराज़ जताए भले ही चिल्लाये मगर इंसानियत के धर्म को जिन्दा रखने के लिए इस सडको की आस्था को बंद करना आवश्यक है.