“सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।”
विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से 9 दिन अर्थात नवमी तक और इसी प्रकार ठीक 6 मास बाद आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के 1 दिन पूर्व तक। परंतु सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। चैत्र मास के नवरात्र को वार्षिक नवरात्र और आश्विन मास के नवरात्र को शारदीय नवरात्र के नाम से जानते है इन दिनों भगवती दुर्गा के साधक भक्त स्नान से शुद्ध होकर पूजा स्थल को साफ कर सजाते है। और मूर्ति स्थापित करते है। और मिट्टी के बने कलश की स्थापना करते है जो बालू जौ और रेत से सुसज्जित होते है। मण्डप के पूर्व कोण में दीपक प्रज्वलित किया जाता है।
नवदुर्गा की प्रार्थना करने से पहले गणेश जी की पूजा करके सभी देवी देवताओं की पूजा किया जाता है। श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ कुल 13 अध्यायों में वर्णित है।
माँ दुर्गाजी सृस्टि की आदिशक्ति है। सूर्य,इन्द्रादि अन्य देवता भी उन्ही की शक्ति से शक्तिमान होकर सारे कार्य करते है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार माँ दुर्गा के नव स्वरूप है।
१- शैलपुत्री २- ब्रम्हचारिणी ३-चंद्रघण्टा ४- कुष्मांडा ५- स्कन्धमाता ६- कात्यायनी ७- कालरात्रि ८- महागौरी ९- सिद्धिदात्री
नवरात्रि के नवों दिन इन स्वरूपो से ही पूजन अर्चन किये जाते है।
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्राधकृतशेखराम।
वृषरूढा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनी।।
पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उतपन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।
शैलपुत्री का विवाह भी शंकरजी से हुआ था। पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी वह शिवजी की अर्धागिनी बनी। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्ति है। नवरात्र पूजन के प्रथम दिनों में इन्ही की पूजन व अर्चन की जाती है।
इस प्रथम दिन की उपासना में भक्त अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते है और यही से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है।