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तारिक आज़मी की कलम से – इस दर्द को क्या नाम दू …?

इंसान को अपने से ज्यादा अपनी औलाद से प्यार होता है. इस एक अहसास को कोई जुबां से अदा करे या न करे मगर ये एक कडवी या कह सकते है मीठी सच्चाई है. आज की सुबह ही बहुत दहलाने वाली थी. मेरी बेटी रानी आज पढ़ते समय बेड से गिर पड़ी. एक तीन साल की इस मासूम के चेहरे पर एक इंच गहरी और आधा इंच लम्बी चोट आई जिससे खून बह रहा था, मेरी नज़र पड़ते ही मैं जैसे सो रहा था वैसे ही उठा और बेटी को उठा कर डाक्टर के पास दौड़ पड़ा. मुझको इतना भी होश नहीं कि मैंने जेब में पैसे रखे की नहीं. इसका भी होश नहीं कि मेरे पैरो में वह चप्पल है जिसको पहन कर मैं कभी बाहर नहीं निकलता, ज़रा भी इसका ख्याल नहीं कि मैंने हो कपडे पहने है वह रात को सोने वाला है और मैंने शर्ट तक नहीं पहनी है. सीधा पास के डाक्टर के पास पंहुचा. खून रुक चूका था और बेटी के आंसू भी मगर डाक्टर ने देख कर कहा कि टांके लगाने पड़ेगे. बेटी को गोद से उतार कर उनके यहाँ रखे स्ट्रेचर नुमा प्लेटफार्म पर लिटा दिया.

कहते है बेटी तो बेटी होती है, वह मेरा हाथ मासूमियत से पकडे थी. शायद वह सुरक्षा का अहसास कर रही थी. लोग कहते है इन सब मामलो में मैं पत्थर दिल हु मगर मेरे पैर उस वक्त हलके हलके काँप रहे थे. उसको कुछ लम्हों में होने वाले दर्द के अहसास से शायद ऐसा था. मेरा गला सुख रहा था. मैंने उसके सर को धीरे से सहलाया. उसकी आंखे तो नम थी. थोड़ी देर के बाद डाक्टर ने दो टांके लगाये. मेरी बहादुर बेटी पहले टांके में तो नहीं चिल्लाई मगर जब दूसरा टांका लगा तो उसने रोते हुवे कहा “पापा दर्द हो रहा है” मैंने उससे कहना चहा “बस बेटा” मगर अलफ़ाज़ मेरे गले में फंसे थे. आँखे उसके दर्द का अहसास कर रही थी. सिर्फ दो टांके….. और मुझको औलाद के इस दर्द का अहसास हुआ. मेरा दर्द शायद बेटी को होने वाली तकलीफ से कही ज्यादा था. बेटी को दवा दिलवा कर लेकर घर आया. रास्ते में उसको चोकलेट दिलाई. घर पर दूध और हल्दी उसको पिलाई गई. मगर अब मेरे अहसास कही और थे.

मैं सोच रहा था मेरी बेटी को इतनी चोट लगी जिसको मामूली चोटों में गिना जाता है और मुझे दर्द का इतना अहसास हुआ. मेरी बेटी खुद गिरी थी किसी और के वजह से चोट नहीं लगी थी उसको तो मुझको इतना दर्द. साहेब उस पिता के सीने पर कैसे खंजर चला होगा जिनकी बेटियों को लाठिया पड़ी थी. जिनकी बेटियाँ अपने हक़ के मांग को लेकर लाठियों के चोट से घायल थी. जिनके सरो और जिस्मो पर लाठियों के निशाँन थे. वो पिता तो सिर्फ तड़प के रह गया होगा न साहेब, वह पिता तो केवल झल्ला रहा होगा खुद पर गुस्सा भी होगा उसको, एक झुंझलाहट रही होगी. एक आह रही होगी, एक दर्द रहा होगा. मगर साहेब इस दर्द का अहसास किसको है ? इस दर्द का अहसास क्या उसको है जिसकी लाठिया बेटियों पर पड़ रही थी ? क्या उसने कभी यह सोचा कि जिसके ऊपर लाठिया बरस रही है वैसी ही एक बेटी उसकी खुद की भी है ?

शायद नहीं साहेब दर्द क्या होता है ? अगर दर्द होता तो क्या वह सुरक्षा कर्मी शांति से बेटियों को छेड़ने वालो को मूकदर्शक बने देखते रहते, क्या अपने कर्तव्यों से मुह मोड़ कर बैठा विश्वविद्यालय प्रशासन किसी दर्द का अहसास करता होगा. नहीं साहेब क्यों करेगा दर्द का अहसास ? दर्द का अहसास करने के लिये एक दिल चाहिये होता है, दर्द का अहसास करने के लिये संवेदनाये होनी चाहिये. दर्द का अहसास करने के लिये एक अहसास होना चाहिये कि उसके जैसी मेरी बेटी भी है. मगर साहेब दर्द का अहसास कहा है ? किसी संस्था का प्रमुख उस संस्था का और उससे जुड़े लोगो का संरक्षक होता है, एक स्थानीय अभिभावक के तौर पर होता है, मगर कहा साहेब यहाँ तो बेटियाँ अपने अधिकारों की मांग को लेकर भूखी बैठी रही और खाने के लिये मिली लाठियां. खाने के लिये मिली तो गालिया. साहेब सिर्फ चार कदम ही तो उठाने थे आपको मामला हल हो गया होता.

हमेशा विवाद को बढ़ा कर आखिर में पूरी ज़िम्मेदारी जिला प्रशासन के सर थोप देना असली दिमाग का काम है. साहेब क्या आपका कद छोटा हो जाता अगर उन बेटियों के पास आप चल कर जाते या फिर उन बेटियों को खुद अपने पास बुला लेते, शायद नहीं बल्कि पक्का आपका कद बड़ा हो जाता. आपका कद आसमान की बुलंदियों को छूने लगता अगर आप बेटियों के साथ खड़े होते. एक अभिभावक के तौर पर आप आते और उन बेटियों को डांट कर कहते चलो जाओ यहाँ से मैं देखता हु कौन है ? साहेब वो बेटियां इज्ज़त से आपके चरणों में नतमस्तक होती साहेब. आज जितनी कलम आपकी आलोचना कर रही है वही कलम आपके गुणगान कर रही होती. साहेब हम भी उसी महामना की बगिया के एक छोटे से फुल है साहेब. हमारे समय में भी इस बगिया में विवाद होते थे मगर कभी ऐसा तो नहीं हुआ कि शोहदे हो परिसर में. कभी ऐसा नहीं हुआ साहेब की किसी लड़की को कोई छेड़ दे. किसी की हिम्मत नहीं थी साहेब कि किसी बेटी बहन पर कोई परिसर में आँख उठा के देख ले. इसी परिसर में हम भी थे साहेब हम लोगो के समय भी बम चलते थे मगर आवाज़ वाले बम नहीं बल्कि “लोला बम” जिसको ज्ञान बम अथवा शिक्षा बम भी कहा जा सकता है. आज तो परिसर में खुल्लम खुल्ला बम चल रहे है. साहेब ये कौन लोग है जो बम चला रहे है ? कम से कम छात्र तो नहीं हो सकते है. अगर छात्र नहीं है तो फिर परिसर में कैसे है. अगर छात्र होते तो ऐसी हरकते करते.
मगर साहेब इन सब बातो के लिये एक अहसास की ज़रूरत है, एक संवेदना की ज़रूरत है. लगभग दो दशक पूर्व महामना की इसी बगिया का एक फूल हु साहेब, बड़ा दर्द होता है जब इस बगिया के सम्बन्ध में ऐसे खबरे लिखना पड़ता है. बहुत तकलीफ का अहसास होता है जब इस बगिया के अमन के बिगड़ने की खबरे आती है एक अजीब सी कसमसाहट होती है जब इसके सम्बन्ध में पता चलता है कि ऐसा हुआ, वैसा हुआ. साहेब कुछ तो करिये. सिर्फ विश्वविद्यालय बंद कर देना छुट्टी कर देना इसका निस्तारण तो नहीं कर सकता. बार बार इस तरह से माहोल के गर्म होने के पीछे का असली कारण तो पता चलना चाहिये साहेब. कब तक प्रशासन यहाँ के बिगड़े हालात सँभालने आयेगा ? कब तक यहाँ के हालात राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बनेगे. शायद पहली बार विश्वविद्यालय के किसी केस में राष्ट्रीय स्तर पर निंदा हो रही है. साहेब इस दर्द को शब्दों में बयान नहीं कर सकते है. शायद इतिहास में पहली बार इस महामना की बगिया के किसी प्रकरण पर अन्य शहरों में विरोध प्रदर्शन हुवे है. साहेब कुछ करे ……….?

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