परिवार की कलह शांत होने के आसार दिखाई पड़ने के बावजूद पांच साल के लिए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष चुने गए अखिलेश यादव को अभी कई मोर्चो पर जूझना होगा। पार्टी का सबसे प्रभावी चेहरा बनने के बाद अब उनके सामने संगठन को विस्तार देने के साथ ही कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने की चुनौती है, जो मुलायम और शिवपाल के हाशिए पर जाने की वजह से आसान नहीं रह गई है। हालांकि अखिलेश सत्ता से बाहर रहते हुए 2012 के चुनाव में जनता के बीच में जा चुके हैं, लेकिन तब संगठन के मुखिया के रूप में मुलायम का साया था। अब उन्हें मुलायम से बड़ी लकीर खींचते हुए कुनबे की कलह में छितराई पार्टी को एक सूत्र में बांधने का कौशल दिखाने और असंतुष्टों को साधने, कड़े फैसले लेने का दम भी दिखाना होगा।
निकाय चुनाव होगी पहली परीक्षा : वैसे तो सम्मेलन से पहली ही सपा ने निकाय चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी थीं, लेकिन अब इसमें तेजी आएगी। सपा इस बार अपने सिंबल पर निकाय चुनाव लड़ने जा रही है, इसलिए अखिलेश के नेतृत्व कौशल का भी आकलन होगा। इसमें टिकट से वंचित कार्यकर्ताओं का विरोध भी खुलकर सामने आ सकता है, जिसका प्रभाव न सिर्फ निकाय चुनाव बल्कि आगामी लोकसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है।
सपा ने पिछला विधानसभा चुनाव कांग्रेस से गठबंधन कर लड़ा था, पर पार्टी का एक बड़ा तबका तब भी इसके खिलाफ था। लोकसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर सपा के नए अध्यक्ष को कांग्रेस से दोस्ती पर नए सिरे से विचार करना होगा। भाजपा का रथ रोकने के लिए महागठबंधन की बातें भी उठती रही हैं। इस पर अखिलेश का फैसला चुनावी नजरिए से महत्वपूर्ण साबित होगा। वैसे सपा यह कह चुकी है कि निकाय चुनाव वह अकेले ही लड़ेगी, लेकिन 2019 के चुनाव में भाजपा के मुकाबले के लिए उसके कदम पर सबकी निगाहें रहेंगी।
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