पिछले दो साल के दौरान रूढ़िवादी अरब सरकारों और इस्राईल के आपसी संबंधों में बड़े बदलाव देखने में आए हैं। यह अरब देश इस्राईल से अपने संबंध लगातार बढ़ा रहे हैं। इन देशों में सऊदी अरब, इमारात और बहरैन सबसे आगे हैं। मीडिया में भी इस प्रकार की ख़बरें आ रही हैं कि इनमें कुछ देश तो अगले साल तक इस्राईल में अपना दूतावास खोलने का इरादा रखते हैं। यही वजह है कि जब अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने बैतुल मुक़द्दस को इस्राईल की राजधानी घोषित किया तो सऊदी अरब, बहरैन और इमारात का विरोध दिखावे से अधिक कुछ भी नहीं था।
रायटर्ज़ ने तो अपनी रिपोर्ट में यहां तक कहा कि सऊदी सरकार फ़िलिस्तीनी प्रशासन को 10 करोड़ डालर की आर्थिक मदद देना चाहती है ताकि वह अमरीकी राष्ट्रपति के फ़ैसले को मान ले। इन परिस्थितियों में बहरैन से एक प्रतिनिधिमंडल ने तेल अबीब की यात्रा की है जिसके बारे में इस्राईली टीवी के चैनल टू का कहना है कि बहरैन का सरकारी प्रतिनिधिमंडल तेल अबीब आया है जिसने बहरैनी सरकार के रुख़ से तेल अबीब को सूचित कराया है। यह पहला मौक़ा है कि बहरैन का कोई सरकारी प्रतिनिधिमंडल तेल अबीब में खुले आम दिखाई दिया है। बहरैनी सरकार का कहना है कि इस प्रतिनिधिमंडल की यात्रा का उद्देश्य अन्य देशों में बहरैन की छवि को बेहतर बनाना है। लेकिन सवाल यह है कि असली माजरा क्या है?
बहरैन और इस्राईल के संबंधों की बात की जाए तो हालिया वर्षों में कई बार बहरैन ने इस्राईल से अपने संबंधों की बात सांकेतिक रूप से स्वीकार की है। वर्ष 2000 में बहरैन के विदेश मंत्री ख़ालिद अहमद आले ख़लीफ़ा ने एक संस्था की स्थापना का प्रस्ताव दिया था जिसमें अरब देशों के साथ ही इस्राईल भी शामिल हो। वर्ष 2005 में बहरैन के उप प्रधानमंत्री मुहम्मद बिन मुबारक आले ख़लीफ़ा ने कहा कि मनामा सरकार ने इस्राईली उत्पादों पर लगा प्रतिबंध हटा लेने का फ़ैसला किया है।
वर्ष 2009 में बहरैन की सरकार ने अरब नेताओं से कहा कि वह इस्राईली मीडिया के माध्यम से फ़िलिस्तीनियों से बात करें ताकि मध्यपूर्व शांति प्रक्रिया को मज़बूत बनाया जा सके। ख़ालिद आले ख़लीफ़ ने वाशिंग्टन पोस्ट में एक लेख लिखा और अरब सरकारों की आलोचना की कि वह इस्राईल से संबंधों को मज़बूत करने का ठीक प्रकार से प्रयास नहीं कर रही हैं।
इस्राईल के अख़बार हाआरेत्ज़ ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बहरैन के विदेश मंत्री के इस्राईल की कादीमा पार्टी की प्रमुख ज़िपी लिवनी से उस समय क़रीबी संबंध थे जब वह इस्राईल की विदेश मंत्री थीं। इस्राईली अख़बार मआरीव ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बहरैन की सरकार ने अपने देश के भीतर जनान्दोलनों को कुचलने के लिए इस्राईली ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद की मदद ली थी।
अब सवाल यह है कि इस समय बहरैनी प्रतिनिधिमंडल ने तेल अबीब की यात्रा क्यों की है? इसके जवाब में यह कहना चाहिए कि पिछले महीने बहरैन नरेश शैख़ हमद बिन ईसा आले ख़लीफ़ा ने अपने भाषण में कहा था कि वह चाहते हैं कि बहरैनी नागरिक आराम से इस्राईल की यात्रा कर सकें। बहरैन का हर फ़ैसला सऊदी सरकार की मर्ज़ी से ही लिया जाता है।
अतः असली माजरा यह है कि सऊदी सरकार इस्राईल से अपने संबंधों को बहाल करने की प्रक्रिया को तेज़ करने के लिए बहरैन को इसतेमाल कर रही है। ट्रम्प की घोषणा के तीन दिन बाद इस प्रतिनिधिमंडल की इस्राईल यात्र से साबित होता है कि बहरैन ट्रम्प के फ़ैसले का सांकेतिक रूप से समर्थन करना चाहते हैं। इस समय हालांकि यूरोपीय देशों और मिस्र के अलअज़हर विश्वविद्यालय ने ट्रम्प के फ़ैसले की निंदा की है। इस तरह ट्रम्प अलग थलग पड़ गए हैं।
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