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ईरान से अमरीका के टकराव के बाद क्षेत्र और दुनिया के हालात क्या होंगे

आदिल अहमद

अरबी भाषी समाचारपत्र रायुल यौम ने ईरान व अमरीका के अधिकारियों के बीच वाकयुद्ध की समीक्षा करते हुए लिखा है कि इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद से ही ईरान दुश्मनों का लक्ष्य बनता रहा है और उसे विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों और घेराव का सामना करना पड़ा है लेकिन वह इन सभी के मुक़ाबले में मज़बूती से डटा रहा है।

साम्राज्यवादियों और उनके प्यादों ने इराक़ को उकसा कर ईरान पर उस समय हमला करवा दिया जब ईरान में इस्लामी व्यवस्था अभी नई नई स्थापित हुई थी। अमरीकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर का कहना था कि इस युद्ध में दोनों पक्षों को पराजय होनी चाहिए लेकिन यह इराक़ था जिसे दसियों लाख हताहत और घायल सैनिकों और सौ अरब से अधिक विदेशी ऋण के साथ हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद वर्ष 2003 में इराक़ का अतिग्रहण कर लिया गया और अब यह देश कहां खड़ा है? अमरीका द्वारा अतिग्रहण से पहले तक इराक़ अपने लोगों के लिए खाने-पीने की वस्तुएं, स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा उपलब्ध कराने में सक्षम था और ऊर्जा व बिजली के क्षेत्र में भी उसे कोई समस्या नहीं थी लेकिन आज इराक़ी, साधारण से मानवाधिकार के लिए भी प्रदर्शन कर रहे हैं ताकि भूख और प्यास से बच सकें और उन्हें बिजली मिल सके ताकि जो उन्हें 55 डिग्री की झुलसा देने वाली गर्मी से बचा ले। यह स्थिति उस देश की है जो हर दिन पचास लाख बैरल तेल निर्यात करके कम से कम चालीस करोड़ डाॅलर कमाता है। क्या वास्तव में ट्रम्प और अन्य अमरीकी अधिकारी यह समझते हैं कि ईरानी जनता को प्रदर्शन जारी रखने और अमरीका के अतिग्रहण में आने की “अनुकंपा” प्राप्त करने के लिए उकसाने हेतु इराक़ एक अच्छा नमूना है?

रायुल यौम लिखता है कि जहां तक सीरिया की बात है तो इस देश में संकट पैदा करने के बावजूद यह देश अमरीकी डेमोक्रेसी नहीं अपना सका है जिससे अमरीका के क्षेत्रीय घटक लाभ उठा रहे हैं! सीरिया की लगभग आधी जनता के पलायन और इस देश के लगभग पांच लाख निर्दोष लोगों की मौत के साथ सीरिया संकट को सात साल गुज़र जाने के बावजूद सीरिया की सरकार को बदलने की अमरीका की साज़िश सफल नहीं हो सकी है, हां इसके बदले में अमरीका इस देश के बुनियादी ढांचे को तबाह करने और सीरिया को 200 अरब डाॅलर से ज़्यादा का नुक़सान पहुंचाने में सफल रहा है! खेद की बात ही कही जाएगी कि अमरीकी साम्राज्य अतिग्रहण के अपने पिछले अनुभवों से पाठ सीखते हुए इस बार प्यादोंं के माध्यम से युद्ध में कूदा और इसके लिए उसने अरब रजवाड़ों के पेट्रो डाॅलर इस्तेमाल किए।

अमरीकी साम्राज्य को इस बात की आदत हो चुकी है कि क्षेत्र में तेल वाले अरब शैख़ों को झूठे व काल्पनिक भूतों से डरा कर बड़ी बड़ी रक़म हासिल करे। इस बार इसके लिए ईरान को चुना गया है। अमरीकियों ने इस बार ग़रीब अरब देश यमन को भी इन अरबों के लिए हव्वा बना कर पेश कर दिया है। अब सवाल यह है कि क्या कोई लड़ाई शुरू होगी? इसका जवाब यह है कि अगर हालात इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो सबसे बड़ा युद्ध (MOTHER OF WARS) शुरू होगा लेकिन उसमें अस्ल पराजय तेल वाले अरब शैख़ों को होगी। अमरीकी सेना की छावनियां जो अरब देशों की आॅयल फ़ील्ड्स पर बनाई गई हैं, इस युद्ध में निशाना बनेंगी और इसके लिए ईरान के मीज़ाइलों की ज़रूरत नहीं है बल्कि ये क्षेत्र तो ईरान की तोपों की ही रेंज में हैं।

इसके अलावा अमरीका के स्पांसर अरब देशों को पीने का पानी भी नहीं मिलेगा क्योंकि पानी फ़िल्टर करने के उनके केंद्र भी लक्ष्य बनेंगे। सबसे बड़ा युद्ध शुरू करने की क़ीमत अमरीका के लिए बहुत भारी और उसकी सामरिक व आर्थिक क्षमता से अधिक होगी। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो अगर अमरीका की पिट्ठू कुछ अरब सरकारों की आॅयल फ़ील्ड्स बंद हो जाएं तो हुर्मुज़ स्ट्रेट खुले रहने की स्थिति में भी तेल की क़ीमतें आसमान छूने लगेंगी और इससे अमरीकी अर्थव्यवस्था को भारी आघात लगेगा। इस्राईल के समर्थक अमरीका को आर्थिक झटकों के अलावा कड़े सामरिक झटके भी लगेंगे जिन्हें सहन करना उसके बस में नहीं होगा और अतिग्रहित क्षेत्रों में अमरीका व इस्राईल के ठिकाने न केवल हिज़्बुल्लाह बल्कि ईरान के समर्थकों का भी लक्ष्य बनेंगे।

पत्र लिखता है कि हम अमरीका की सैन्य शक्ति और अतिग्रहणकारी इस्राईली शासन की क्षमता को कम नहीं आंक रहे हैं लेकिन अगर ये दोनों इस युद्ध में एटम बम का इस्तेमाल नहीं करेंगे (जिससे पूरा क्षेत्र नष्ट हो जाएगा और इसी लिए इसकी संभावना न होने के बराबर है) तो इन दोनों को बहुत भारी क़ीमत चुकानी होगी और ईरानी पक्ष स्थिति को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है लेकिन दूसरे पक्षों यानी अमरीका व इस्राईल के लिए इसे सहन करने अत्यंत कठिन होगा।

बड़े पुराने नहीं बल्कि निकट अतीत पर ही ध्यान देने से हम समझ सकते हैं कि पिछले दो दशकों में अमरीका अपने सभी युद्धों में पराजित हुआ है और यही स्थिति सबसे बड़े युद्ध (MOTHER OF WARS) के शुरू होने पर भी दोहराई जाएगी। तो क्या अब हम अपने आपसे पूछ सकते हैं कि अरब देशों को छोड़ कर ईरान समेत हर क्षेत्र में वर्चस्व जमाने की अमरीका की नीति विफल हो जाती है? क्या इसकी वजह यह है कि अरब, ईश्वर को छोड़ कर सबसे अधिक लोगों के आगे सिर झुकाते हैं और वे सबसे अधिक पाप करने वाले हैं?

aftab farooqui

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