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एक दो तीन चार, हलीम कालेज का भ्रष्टाचार – हसीब बाबु ज़कात का पैसा कौन खा जाता है ?

तारिक आज़मी.

कानपुर. कहते है कि इस दुनिया में कुछ ऐसे भी लोग है जो इंसानों का कफ़न तक बेच कर खा जाते है. इसी से मिलता जुलता कुछ ये भी प्रकरण होता है कि ज़कात का पैसा मुस्लिम इदायरो में उसके करता धर्ता खा जाते है और कागजों पर गरीबो का भला कर देते है. ‘

क्या होता है ज़कात

मुस्लिम समाज में ज़कात हर इंसान जो साहेब-ए-निसाब होता है अदा करता है. यहाँ साहेब-ए-निसाब का तात्पर्य एक ऐसी रकम से होता है जिसके नगद या फिर जेवर के रूप में होना अथवा बैंक में जमा होना से होती है. मौजूदा वक्त में यह रकम लगभग 75 हज़ार के आस पास होती है. इतनी रकम होने पर ज़कात वाजिब यानि अति अनिवार्य हो जाता है देना. ज़कात कुल रकम का 2.5% होती है. मुस्लिम समाज इस रकम को गरीबो में तकसीम करता है. इसी के मद्देनज़र अक्सर मुस्लिम इदायरो में अपनी निकाली हुई ज़कात भेज देते है ताकि उन पैसे का उपयोग गरीब बच्चो के पढाई लिखाई, दवा इलाज और खाने पीने में खर्च हो.

अब होता क्या है कि कुछ ऐसे भी लोग है कि उनके संस्था में आने वाला यह पैसा वह खुद हज़म कर जाते है और गरीबो का हक़ मार दिया जाता है. इसी कड़ी में एक बड़ा सवाल हलीम कालेज पर लगातार लग रहा है. क्षेत्रीय चर्चाओ की और एक अध्यापिका की माने तो हलीम कालेज में सालाना लाखो रुपया ज़कात का आता है. इस पैसे का उपयोग असल में गरीब बच्चो के कापी किताब और पढाई लिखाई तथा फीस पर खर्च होना चाहिये. मगर चर्चा है कि इसका हिसाब तो केवल संस्था पर नागफनी बने बैठे हसीब के पास रहता है. किसी अन्य को तो नहीं मिल पाती है इसकी सुविधा मगर हसीब साहब और उनके लग्गू बिजझुओ के काम आता है,

गोपनीय सूत्रों के हवाले से मिली खबर के अनुसार पहले कुछ औद्योगिक घराने इस कालेज में कापी किताब, पेन पेन्सिल और ठण्ड के वक्त में स्वीटर और गर्म कपडे भेजते रहे और उनको सीधे बंच्चो को दे दिया जाता रहा है. मगर इसके बाद इन औद्योगिक घरानों से ये सब सामन आना बंद सा हो गया. जो थोडा बहुत आता भी है उसको किसी और को भेज दिया जाता है. जब हमने संस्था में लोगो से तहकीकात किया तो दबी ज़बान में धीरे से लोगो ने बोलना शुरू कर दिया.अब अगर उनकी बातो को प्राथमिकता पर लिया जाये तो इन औद्योगिक घरानों से मिल कर हसीब साहब ने खुद का परिचय देकर उन सामनो के बदले पैसे भेज देने की बात तय कर दिया.

अब हालात ऐसे है कि गरीब और मज़लूमो को उनके नाम से आये सहयोग में न तो कपडे और स्वीटर मिल पा रही है और न ही ज़कात के फंड का कोई उपयोग दिखाई देता है. इसका हिसाब भी किसी के पास नहीं है और हालात ऐसे है कि न खाता न बही, जो हसीब कहेगा वही सही.

  • अगले अंक में हम आपको बतायेगे कैसे हसीब ने मारे केसा के 36 लाख रुपया और बच्चो को अँधेरे में तथा गर्मी में बैठने को कर दिया है मजबूर. अगली कड़ी में बतायेगे कितने मुकदमो में यह है आरोपी.
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