वाराणसी. वैसे हमको पता है कि आप सब ये डायलाग अब पढ़ते पढ़ते बोर हो गये होगे. का करे साहब लिखना है तो लिख देते है मगर सच बता रहे है कि हमारे काका सही में कहते रहे बतिया है कर्तुतिया नाही. मगर हमारे समझ नहीं आता रहा. जब समझ आया तो खटिया का फैशन खत्म हो गया और उसकी जगह डबल बेड ने ले लिया. मस्त डनलप जैसा गद्दा रहने लगा और उस गद्दे पर हिचकोले खाते हुवे हम लोग सोने लगे. तभी कमर ससुरी वक्त से पहले झुक गई और फिर तो ज़मीन का दो गज जगह तक पहुचते पहुचते एक दम टूटी रोटी के परत हो गई. हमको भैया काका कि बात याद रही तो हम तो बड़ी मुश्किल से एक खटिया खरीद लाये. अब भले ऊ खटिया टूटने लगी है मगर हम बतिया की खटिया बिछा लेते है. आज तनिक दिमाग कड़क हो गया तो शुरुवे में कुछ ज्यादा लिख दिया. मगर सही कहते है कि बतिया की खटिया तो बिछाना पड़ेगा न साहब. तो बिछा लेते है बतिया की खटिया.
आज सावन का रिमझिम फुहार में हम भी टिपटॉप लल्लनटॉप होकर निकले घुमने के लिये. भाई कऊनो हम बुढा गए है का घसीटू चा की तरह, हम भी लल्लनटॉप होकर निकलते है. बढ़िया इतर और परफ्यूम भी लगा लिया रहा. बहुत दिन हो गया रहा रजा खान की मस्जिद वाली गली से गुज़ारे हुवे. तो सायकल का नाम लेकर बनी मोटरसायकल को लेकर उधर से निकल पड़े. भले दिल में गाना चल रहा था नीले गगन के तले. तभी अचानक गाडी की पहिया से एक सड़क का चौका नाराज़ हो गया और अपने गर्भ में छुपाये पानी को हमारे मुह पर कुछ इस तरह मार दिया जैसे लगा हो कि कोई नाज़ुक लहर का बाप क्रुर हमारे मुह पर थूक दिया हो. दो मिनट में हमारा टिपटॉप लल्लनटॉप का ड्रेस तो गली के दुसरे नुक्कड़ पर सायकल का पंचर बना रहे कल्लू के तरह हो चूका था/ ऐसा लग रहा था कि मुह ही काला कर दिया कमबख्त ने.
भाई सच बताये पत्थर के नीचे पड़े कीचड़ ने मुह काला करके अपने तरफ आकर्षित करवा लिया कि कहा जा रहे हो जानम, तुम्हारा ध्यान किधर है, सही से देखो खबर तो इधर है. हमने भी ध्यान दिया गुरु सही कहा था कि इधर है. आदमपुर जोन के मछोदरी पार्क स्थित बाबा मछोदारनाथ के ठीक सामने से आने वाली मस्जिद काले खान तक की यह गली अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही थी और शायद उसके आंसू अब कीचड़ में तब्दील हो चुके है और हर एक चौके ने नीचे खुद को समाये हुवे आने जाने वालो का ध्यान अपनी तरफ खीचने के लिये उसका मुह ऐसे ही काला कर देते होंगे.
पत्थर के नीचे से निकलने वाला कीचड़ मुह मेरा काला करने के बाद अभी भी बुद्द्बुदा रहा था कि गरीबो की तो कोई सुनता ही नहीं है. इस गली में गरीब रहते है न तो वो सिर्फ वोट देने और टैक्स देने के काम आते है उनको सुविधा देने के लिये कोई सोचता ही नहीं है. लगभग 200 या 300 चौके बिछा दिए जाये और उसकी कायदे से जोड दिया जाये तो इन गरीबो का भी कुछ भला हो जाये. कम से कम ये भी नहीं हो सकता है तो नगर आयुक्त आकर मेरे आंसू देख ले. बार बार बीमार होते इस इलाके के बच्चो और बुढो को देख ले. कम से कम तसल्ली तो हो जायेगी कि हम गरीबो का सुनने वाले दो कान है. मगर कोई सुनता ही नही है. एक तरफ मंदिर दूसरी तरफ मस्जिद और इन दोनों के बीच सीवर और अतिक्रमण किये नाली के बजबजाते कीचड लोगो के मुश्किलों का सबब बन रहे है कोई तो देख लो.
भैया हम पहले कहते है करना धरना हमको कुछ नहीं है बस हम बतिया लेते है और ऊ पत्थर के द्वारा अपना मुह काला करवा कर भी हम खाली बतिया रहे है. करना क्या है करने को चाहे तो नगर आयुक्त महोदय कुछ कर सकते है मगर महोदय को रोज़ घेराव करने वालो से फुर्सत नही मिल रही है तो क्या करे ? वैसे ही काम ज्यादा है और लोग कम है. मगर साहब चाहे तो दुबारा हमारा मुह काला नहीं होगा. बस भैया खटिया टूटे इसके पहले ही बतिया की खटिया उठा लेते है और चलते है बतियाने के अलावा कुछ कर ले.
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