तारिक आज़मी
वाराणसी, हर वर्ष की भाति इस साल भी पूरी आस्था और विश्वास से बहनों ने अपने भाइयो की कलाई पर कच्चे धागे को बाँध कर उनसे रक्षा का वचन लिया. हर भाई आज अपनी बहन को जहा उपहार दिया वही साथ ही वचन भी दिया कि आजीवन वह इसकी रक्षा करेगे. इसको क्या कहेगे इसका अंदाजा मुझको नहीं है मगर कम से कम इसको कुंठित मानसिकता कह सकते है या फिर मानसिक रोग कि आज के ऐसे पावन बेला पर पुलिस के रोमियो स्क्वाड को भी सडको पर पसीना बहाना पड़ा.
वैसे इस कुंठित मानसिकता अथवा मनोरोग के बात पर याद आया कि हर वर्ष की भाति इस वर्ष भी मुझको कई सालो से मुझको भी एक बहन राखी बांधती आ रही है. हर साल की भाति इस साल भी उसने आस्था और स्नेह से मुझको आज राखी बाँधा. मगर हद है समाज तेरी कुंठित मानसिकता पर. उसके घर से अपने घर तक आने के लिए मुझको लगभग दो किलोमीटर से कम ही बाइक चलाना पड़ा मगर रास्ते में इस बार मुझको लगभग दस लोगो ने टोका ज़रूर, शब्द भी ऐसे कि पूछो मत. सीधा सवाल का यार तुम्हे कौन राखी बाँध दिया ?
लोगो के सवाल इनकी संकीर्ण मानसिकता को प्रदर्शित करने के लिए काफी रहता है. इसको संकीर्ण मानसिकता कहे या फिर बीमार सोच कोई फर्क नहीं पड़ता है. लोगो के सवाल तो इस तरह हो रहे थे कि अब बस तुरंत साबित करना पड़ेगा कि हुमायु की बहन दुर्गावती आखिर कैसे हो सकती है. ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं राखी बंधवाकर नहीं बल्कि किसी अजीब किस्म के पाप को करके आ रहा हु. यह तो केवल शुरुवात है अभी और सवाल तो लोगो के बाकी है.
सच बताऊ ये संकीर्ण मानसिकता के लोग है. आज यह पहली बार तो हुवा नहीं है कि मैंने राखी बंधवाया है यह क्रम तो कई सालो से चला आ रहा है फिर ये सवाल क्यों ? सच बताऊ तो मुझको जो लगता है वह यह है कि धीरे धीरे नफरत का जो ज़हर बोया गया है वह ज़हर आज समाज के रगों में दौड़ रहा है. तभी तो आज हुमायु को साबित करना पड़ेगा कि हुमायु की बहन दुर्गावती कैसे हो सकती है. आज कही न कही से हुमायु और दुर्गावती दोनों को इस बात का प्रमाणपत्र देना ज़रूरी होता जा रहा है कि वह दोनों भाई बहन आखिर हो कैसे सकते है.
कमाल है साहब, समझ नहीं आता है कि आज आखिर समाज जा कहा रहा है. आखिर इतनी नफरते क्यों ? ये बेचैनी क्यों ? ये मानसिक दिवालियापन है आखिर ऐसी मानसिकता जो समाज को अलग करे समाज को बाटे क्यों ? कोई आज मरता भी है तो आज उसका जाति धर्म पूछा जाता है आखिर क्यों ? एक समय था कि प्राकृतिक आपदा के समय सब कंधे से कन्धा मिला कर खड़े रहते थे. न हिन्दू न मुसलमान न सिख न इसाई. सब इंसान होते थे, याद है मुझको अपने बचपन में जब बारिश नहीं होती थी और काफी गर्मी अपने शबाब पर रहती थी तो मोहल्ले के लोग काल कलौटी खेलते थे सबका नारा एक होता था “काल कलौटी उज्जर धोती ए मौला तू पानी दे, धरती सुखी बैल पियासा ए मौला तू पानी दे” इसमें कोई धर्म का नही होता था, इसमें तो सब इंसान होते थे. फिर वह आपसी भाईचारा कहा गया ?
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