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राजमति का सिद्धपीठ आश्रम जहा छेड़खानी करने वालो को सबक सिखाते है सांप

विकास राय

गाजीपुर जनपद के भांवरकोल विकास खण्ड के दलित बाहुल्य ग्रामसभा मसोन के उत्तरी-पश्चिमी सीवान के एकान्त जंगलों में विद्यमान योगमाया राजमति का सिद्धपीठ आश्रम अपने असीमित दैवीय चमत्कारों से परिपूर्ण होने पर न जाने क्यों आज भी अपेक्षित विकास से काफी अछूता पड़ा हुआ है। जहां कोई दसवीं शताब्दी के आसपास हजारों वर्षों पुराने वट-पीपल के खोडऱे से योगमाया राजमति की मूर्ति स्वयंमेव उत्पन्न हुई थी।

मंदिर के पूजारी ने बताया कि दसवीं शताब्दी में प्रतापी राजा राजेन्द्र प्रथम अपने राज्य का विस्तार करते हुए सेना सहित जब आये तो उस वक्त यहां लम्बा-चौड़ा काफी घना-घनघोर जंगल था। घनघोर इतना था कि सूर्य की किरणें भी काफी मशक्त करते हुए यहां के जमीन पर दिखायी पड़ती थी। आक्रांता राजा राजेंद्र प्रथम रात्रि विश्राम के ध्येय से सेना के साथ रूके, तो रात्रि में उन्हें एक दिव्य ज्योति मुक्त देवी यह कहते हुए दिखाई दी कि मैं वट-पीपल के खोडऱे में जमीन के अन्दर विराजमान हूं। वहीं सुबह होते ही वह राजा अपने नौकरों से वट-पीपल के खोडऱे के नीचे की जमीन खोदने का आदेश देकर स्वयं वहां आकर किनारे खड़े हो गये। करीब चार-पांच फुट गहरी खोदाई में पड़ी योगमाया राजमति की मूर्ति दिखाई दी।

धार्मिक होने की वजह से वह अपने ऊपर माता का छाया समझकर एक छोटा सा मंदिर वृक्ष के नीचे ही बनवाकर नित्य माता की पूजन-अर्चन करने की घोषणा करते हुए अपने लोगों को नियुक्त कर दिया। वहीं बगल में कुछ ही दूरी पर एक किला भी बनवाया, जिसका भगनावशेष आज भी ऊंचे टीले के रूप में विद्यमान है। जहां से कोई ढ़ाई सौ वर्ष पहले कोटवां-नारायणपुर निवासी विश्वनाथ रस्तोगी को व्यवसाय करने जाते वक्त सात हण्डे दिखाई दिये, जो जमीन से ऊपर थोड़ा बहुत दिखाई दे रहे थे, तो उत्सुकता वश उन्होंने उन हण्डों को खोदकर निकाला। तो उसमें चांदी के सिक्के भरे मिले। इसे दैवीय चमत्कार सोचकर उन्होंने अपने गांव के सामने गंगा किनारे पक्की सीढिय़ां और एक भव्य शिवमंदिर बनवाया, जो आज भी गंगा स्नान करने वाले भक्तों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है।

गंगा भक्त स्नान करके शिवमंदिर में अर्ध्‍य देना नहीं भूलते है। वर्ष के दोनों नवरात्रि को यहां उत्तर-प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश से भक्तगण आते हैं और श्रद्धा के साथ पूजन-अर्चन करके मन्नतें मांगते हैं और जब उनकी मन्नतें पूरी हो जाती है, तो माता के दरबार में आकर प्रसाद स्वरूप तीन-चार फीट की लम्बाई वाले लोहे का त्रिशूल चढ़ाकर अपने को धन्य समझते हैं। पूजन-अर्चन करने के साथ-साथ नवरात्रि में कराहा भी मां को समर्पित करते हैं। मां के मंदिर परिसर में चढ़ायें गये सैकड़ों त्रिशूल वट-पीपल के तने से सटाकर रखे देखे जा सकते हैं। यह भी बताया गया है कि हर एक माह में पूर्णिमा के दिन दूर-दूर से भक्तगण आते हैं और कराहा सहित पूजन-अर्चन करते हैं।

वैसे नवरात्रि के आखिरी दिन तो भक्तजनों की इतनी भीड़ होती है कि कराहा देने के लिए जगह नहीं मिलती है। भक्तजनों के सहयोग से स्थानीय पूजारी जी ने मां के मुख्य स्थल से सटे भव्य मंदिर का निर्माण कराया और मां की यह अतिप्राचीन मूर्ति के स्थान पर एक सुन्दर मूर्ति भी तैयार करवाया तथा उसे वैशाख अक्षय तृतीय 213 के दिन नव निर्मित गर्भगृह में स्थापित करने की योजना निश्चित की, तो रात्रि में माता राजमति ने सपने में आकर कड़ा आदेश देते हुए निर्देश दिया कि मेरी मूर्ति बदली नहीं जाये, मेरी पुरानी मूर्ति को ही मंदिर के अन्दर स्थापित करो। फिर क्या यह बात पुजारी ने प्रात: भक्तजनों को बताया। फिर मां के निर्देशानुसार ही वैशाख की अक्षय तृतीया के दिन अति प्राचीन मूर्ति में चेहरे को अति सुंदर परिमार्जित करके गर्भगृह में धार्मिक पूजन समारोह के साथ स्थापित कर दिया गया। नवरात्रि के अंतिम दिवस को यहां भक्तों का मेला भी लगता है। यह भी लोगों द्वारा बताया गया है कि मां के शक्ति से परिसर में छेडख़ानी कोई नहीं कर सकता है। यदि करने का दूस्साहस करता है, तो मां के अदृश्य सांप उनके सामने फन फैलाकर तन जाते हैं, ऐसा वाकई कई बार हो चुका है।

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