तारिक आज़मी
देखा साहब हमने आपसे कहा था न कि पत्रकारिता इतनी आसन नही है। इससे ज्यादा आसान है कि पत्रकारिता के नाम पर सच को छुपा लो, झूठ को दिखा लो, थोडा शासन सत्ता की पत्तेचाटी कर लो। टीआरपी बढ़ा लो और फिर हो गई पत्रकारिता। वो एक शेर है न कि आसान रास्ते से गुज़र जाइए जनाब, सच बोलने वाले तो सलीबो पर चढ़े है।
खुद का कद कुछ हो या न हो, मगर सोशल मीडिया पर भीड़ के बीच आप अपने प्रवचन जारी रखे। कोई मांगे न मांगे मगर आप उसके नाम पर अपनी सलाह देते रहे और खुद को हीरो समझ कर लोगो को समझाते रहे। क्या फर्क पड़ता है कि कोई आपसे मदद मांगता है या नही मांगता है, मगर आप खुद को चक्रवती सम्राट समझते हुवे भले आप किसी थाने के हिस्ट्रीशीटर हो, या फिर तिहाड़ी तक का सफ़र तय कर आये हो, मगर उसको मदद देने का आप फर्जी एलान ऐसे करते रहो। जैसे आपके दरवाज़े पर आकर वो आपसे मदद मांग रहा हो। भले ही वो खुद सक्षम हो, खुद उसका कद हो, मगर अपने आका ने नज़र में अपने नंबर बढाने के लिये आप दुसरे को ज्ञान ज़रूर दे। कमबख्त समझ नही आता है कि आखिर कौन सी ये पत्रकारिता है कि खुद दो लाइन न लिख सको अपने दाताओ के रहमो करम पर अपने अलफ़ाज़ रखो।
पत्रकारिता को बदनाम करने की क्या ज़रूरत है। नेता बन जाओ आप न, नेतागिरी में कही का टिकट लेकर आप चुनाव लड़ो और फिर जीत जाओ और मंत्री बनने का सपना सजा लो। कम से कम पत्रकारिता को बदनाम तो न करो। वैसे सीखने की क्षमता तो तुम्हारी है नही, क्योकि पत्रकारिता को तुमने एक पेशा समझ रखा है। इतिहास गवाह है कि जब सेवा भाव पेशा बनता है तो उसका आखिर में अंजाम क्या होता है। आँख उठा के देख ले। अब देखो न बदल तो हम भी सकते है। मगर क्या करे हुजुर, वो एक शेर है न कि वक्त के साथ बदलना तो बहुत आसा था, मगर मुझसे हर वक्त मुखातिब रही गैरत मेरी। तो साहब उसी गैरत को अपने पास रखकर हम तो नही बदल सकते है। वक्त लाख बदलता रहे मगर हम क्या करे, गैरत को पीछे तो नही छोड़ सकते है।
देखे न विचारों की अभिव्यक्ति करो तो जेल जाने को तैयार रहो के समीकरण अब तो और आगे निकल चुके है। इसके पहले तो आप सिर्फ यही सुन रहे थे कि विचारों की अभिव्यक्ति में फलनवा व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा हुआ। ये फलनवा व्यक्ति सरकते सरकते फलनवा पत्रकार हो गया। अभी याद ही होगा वो प्रकरण जिसमे एक पत्रकार को इसी विचारो की अभिव्यक्ति के तहत हिरासत में लिया गया, जिसको अदालत ने ज़मानत पर रिहा कर दिया, फिर क्या हुआ साहब, उसी पत्रकार पर एनएसए लगा दिया जाता है। क्योकि उसके विचारो से शायद देश की एकता और अखंडता पर खतरा रहा होगा। आज स्थिति शायद वैसी ही है कि एक सही बात बोलो तो दस नोच डालने को तैयार रहते है। भीड़ तंत्र तो हावी होता जा रहा है। भीड़ जुटा कर भी तो पत्रकारिता हो सकती है।
अब आज का ही प्रकरण ले ले, एनडीटीवी की साईट से पता चला कि उसके ऊपर अनिल अम्बानी की रिलायंस ग्रुप द्वारा दस हज़ार करोड़ का मुकदमा दर्ज करवाया गया है। एनडीटीवी के उस पोस्ट को आधार माने तो ये मुक़दमा राफेल डील के लगातार समाचार कवरेज के लिये दर्ज करवया गया है। अब सोच ले साहब एक खबर के लगातार फालोअप के साथ खबरे चलाना और सीधे दस हज़ार करोड़ का मुकदमा दर्ज होना। आखिर कैसे किया जा सकता है पत्रकारिता। खुद सोचे कितना आसान है या फिर कितना मुश्किल है पत्रकारिता करना। मगर मानना पड़ेगा उस जुझारू क्षमता वाले रविश कुमार को, जो आज भी पत्रकारिता का परचम लेकर खड़ा है और लगातार पत्रकारिता के मूल मंत्र को चरितार्थ कर रहा है।
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