तारिक आज़मी
माना कि पत्रकारिता का ये मतलब नही कि केवल किसी कि कमियों को उजागर करते रहो। मगर सच को छिपाया भी तो नही जा सकता है। सच को छुपाने वाले एंकरों की कमी इस देश में कहा है। आप किसी भी समय अपने चैनल्स को बदल के तो देखे कई खुबसूरत कपड़ो से सजे रंग बिरंगी टाई लगा कर बैठे लोग अपनी बात में देश का सबसे उर्जावान मंत्री पियूष गोयल को सिद्ध कर रहे होंगे। हकीकी ज़मीन पर इसकी सच्चाई की परत तब खुलती है जब आप किसी ट्रेन से एक खास मकसद से जा रहे होते है। ट्रेन घंटे नहीं घंटो की लेट लतीफी के साथ चल रही हो। उसी दौरान उस रेल के महकमे के सरपरस्त मिनिस्टर सियासी पाँव को फैलाते हुवे नेटवर्क के बढाओ पर लम्बी चौड़ी तक़रीर कही दे रहे होते है। या फिर शायद अपने प्रवचनों से सोशल मीडिया पर खुबसूरत पोस्ट कर रहे होते है।
आप खुद सोचे ट्रेन का लेट होना कौन सी बड़ी खबर है। शायद बिलकुल भी नही। क्या फर्क पडता है कि कोई ट्रेन कितनी देरी से चल रही है। मगर आपको इस खबर की हकीकी ज़मीन तब दिखाई देगी कि ये ट्रेन देर से चलने वाली खबर भी एक बड़ी खबर होती है, जब आप खुद उस ट्रेन में बतौर मुसाफिर सफ़र कर रहे हो। आपको दर्द का अहसास तब होगा जब आप दूर दराज़ कमाने के लिये गये हुवे हो और फिर वहा से किसी अर्जेंट काम से घर आना हो। आपको तब इस देरी पर बहस करने की ज़रूरत होगी जब आप किसी और शहर में रोज़ी रोटी में मशगुल हो और आपको अर्जेंट काल किसी काम का आये और ट्रेन पकड़ने के आलावा आपके पास और कोई रास्ता न हो। जब आपको एक दिन बाद होने वाले कार्यक्रम में आना हो, आपने ट्रेन सही पकड़ी हो मगर रास्ते में ट्रेन लेट हो जाए और आपका आना न आना एक बराबर हो जाये। मालूम है मुझको इसके अहसास से ही आप सिहर उठेगे मगर फिर भी आप कहेगे कि क्या करे ट्रेन अपने बस में तो नही ? मगर आप सोचे जिन छात्रो का भविष्य ट्रेन के लेट लतीफी के कारण ख़राब हो गया हो और उसकी परीक्षा छुट गई हो। उनका क्या हाल रहा होगा?
मामला शनिवार का है जब दिल्ली से चलकर अलीगढ-कानपुर-इलाहाबाद-मिर्ज़ापुर-मुगलसराय होते हुवे पूरी तक जाने वाली नंदन कानन की लेट लतीफी ने कई छात्रो का भविष्य अन्धकार में डाल दिया। नंदन कानन ट्रेन पकड़ने के लिये काफी छात्र स्टेशन थे। इसमें काफी छात्र अन्य प्रदेशो से आये थे। अन्य प्रदेशो से आने वाले ये छात्र 18 जनवरी को रात और कुछ देर रात ही दिल्ली पहुच गये थे। इस ट्रेन को भुवनेश्वर होते हुवे पूरी को जाती है और भुवनेश्वर को ही इन छात्रो को परिक्षा देने के लिये जाना था। ये सभी छात्र पहले चरण की परीक्षा पास करने के बाद दुसरे चरण की परीक्षा देने जा रहे थे। सुबह शनिवार को 6:30 बजे दिल्ली से रवाना होने वाली यह ट्रेन अपनी पूरी आरामतलबी के साथ लेट लतीफी दिखाते हुवे शाम को 3 बजे रवाना होती है। यानी चलने वाली जगह से ही लगभग 9 घंटे लेट से ये ट्रेन छूटती है। इसके बाद इसको मिर्ज़ापुर में लगभग 6 घंटे रोक दिया जाता है। छात्र काफी इस ट्रेन में ऐसे थे जो परिक्षा देकर अपना भविष्य सवारने जा रहे थे। मगर गोयल साहब की ट्रेन तो अपने में ही मस्त रही। इस लेट लतीफी के साथ 20 जनवरी को सुबह 10:40 पर पहुचने वाली यह ट्रेन बड़े ही आराम से 21 जनवरी को सुबह 8:50 पर यह भुवनेश्वर पहुचती है। अब आप सोच सकते है, इतना लम्बा हिंदी का सफ़र अंग्रेजी के सफ़र में तब्दील करके यहाँ पहुचने वाले देश के मुख्तलिफ हिस्सों से आये नवजवान साथी जिनकी सुबह 9 बजे से परिक्षा होने वाली थी का क्या हाल हुआ होगा। तन की मेहनत और धन की बर्बादी दोनों हो गई और परिक्षा न दे सके।
मैं जानता हु कि ट्रेन की लेट लतीफी की ये कोई बड़ी खबर नहीं है। मगर देश को बुलेट ट्रेन का ख्वाब दिखाने वाले साहब शायद हकीकी ज़मीन से वाकिफ नही है। अव्वल तो गोयल साहब को कभी ट्रेन से चलना न होता होगा। अगर हो भी जाता होगा तो उनकी ट्रेन में मौजूदगी से ट्रेन हर स्टेशन पर बिफोर टाइम ही पहुच जाती होगी। गोयल साहब कभी देश के आम नागरिक बनकर, उस आम नागरिक के तरह अकेले किसी ट्रेन में सफ़र करे। आपको अहसास हो जायेगा कि हिंदी के सफ़र को देश की आम जनता किस तरह अंग्रेजी का सफ़र करती है। बुलेट ट्रेन का हमारे देश में दिल से स्वागत है, मगर हमारी वर्तमान जो ट्रेन चल रही है उनके हालात पर भी तो गौर होना चाहिये।
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