आदिल अहमद/ शाहरुख़ खान
नई दिल्ली: सीबीआई बनाम सीबीआई मामला देश में काफी चर्चित है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तीन घंटे की सुनवाई के बाद सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ ने केंद्र, सीवीसी,सीबीआईI, आलोक वर्मा, कॉमन कॉज और विपक्ष में नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की ओर से दलीलें सुनने के बाद ये फैसला सुरक्षित रखा। अब आज मंगलवार को अपना फैसला सुप्रीम कोर्ट सुनाएगा।
क्या था सुनवाई में पीठ का सवाल
पीठ ने पूछा कि जब जुलाई में ही पता चल गया था तो सरकार को चयन समिति के पास जाने में क्या दिक्कत थी? ये ऐसा मामला नहीं है कि रातोंरात ऐसे हालात बन गए। चीफ जस्टिस ने कहा कि सरकार के कार्य संस्थान के हित में होने चाहिए। हालांकि चीफ जस्टिस ने यह भी कहा कि हमारी चिंता यह है कि क्या दो साल के कार्यकाल का नियम निदेशक पर अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी ऊपर है? क्या दो साल उन्हें कोई छू नहीं सकता? सीवीसी की तरह सीबीआई निदेशक को सरंक्षण क्यों नहीं दिया गया? इस दौरान अगर निदेशक घूस लेते हुए पकड़े जाएं तो क्या वे एक पल भी निदेशक बने रह सकते हैं?
केंद्र की ओर से क्या पेश हुई दलील
केंद्र के तरफ से एजी वेणुगोपाल ने कहा कि दोनों अफसर बिल्लियों की तरह लड़ रहे थे जिससे सीबीआई की छवि नकारात्मक बन गई थी और संस्थान की अखंडता बचाने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया। केंद्र ने अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे में काम किया और इसके अलावा उनके पास कोई और चारा नहीं था। आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के बीच लड़ाई काफी बढ़ गई थी और यह सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन गया था। सरकार हैरान होकर देख रही थी कि आखिर दो शीर्ष अधिकारी कर क्या रहे हैं। केंद्र अगर ये कदम नहीं उठाता तो भगवान जाने दोनों अफसरों के बीच की लड़ाई कहां जाकर रुकती। जांच एजेंसी के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच विवाद इस प्रतिष्ठित संस्थान की निष्ठा और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचा रहा था। दो शीर्ष अधिकारियों आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना का झगड़ा सार्वजनिक हुआ जिसने सीबीआई को हास्यास्पद बना दिया। वर्मा और अस्थाना के बीच संघर्ष ने अभूतपूर्व और असाधारण स्थिति पैदा कर दी थी।
उन्होंने दलील देते हुवे कहा था कि सरकार का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि देश की इस प्रमुख जांच एजेंसी में जनता का भरोसा बहाल हो। अगर आज कोई पूछे कि सीबीआई डायरेक्टर कौन है, तो हम कहेंगे कि आलोक वर्मा। उनका पद, सरकारी बंगले, गाड़ी सभी सुविधाएं बरकरार हैं। केंद्र ने वर्मा को नियुक्त किया था। अगर उनका दो साल के कार्यकाल के बीच ट्रांसफर किया जाता तो चयन समिति की अनुमति की जरूरत पड़ती। लेकिन छुट्टी पर भेजा जाना ट्रांसफर के समान नहीं है। ऐसे में इसके लिए समिति की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
उन्होंने अपनी दलील में कहा था कि इस मामले को प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और लोकसभा के नेता विपक्ष की समिति के पास भेजने की जरूरत नहीं थी क्योंकि चयन समिति का उम्मीदवार चुनने के बाद कोई नियंत्रण नहीं रहता। सिर्फ केंद्र सरकार ही नियुक्ति प्राधिकरण होने के कारण दखल दे सकती है। नियम है कि केंद्र सरकार कमेटी की सिफारिश पर सीबीआई निदेशक की नियुक्ति करती है और चयन समिति तीन नाम भेजती है जिसमें से एक को चुना जाता है। चयन समिति और नियुक्ति समिति में अंतर है। दो वरिष्ठ सीबीआई अधिकारी एक-दूसरे के खिलाफ हो गए थे। मामलों की जांच करने के बजाए वे एक-दूसरे पर रेड कर रहे थे। एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा रहे थे। वे सबूतों से छेड़छाड़ कर सकते थे और ये हैरान करने वाली स्थिति थी। इस अप्रत्याशित और असाधारण स्थिति में सीवीसी ने तय किया कि आलोक वर्मा को एजेंसी के कामकाज से दूर रखा जाए जब तक कि जांच पूरी न हो जाए।
क्या थी दलील आलोक वर्मा के वकील फली नरीमन की
अलोक वर्मा के तरफ से बहस के लिये मौजूद वरिष्ठ अधिवक्ता नरीमन ने दलील दिया था कि ये ट्रांसफर के समान ही है क्योंकि वर्मा के अधिकार अंतरिम निदेशक को दिए गए हैं। दो साल के कार्यकाल का मतलब ये नहीं कि निदेशक सिर्फ विजिटिंग कार्ड रखे लेकिन उनके पास शक्तियां न हों। दो साल का कार्यकाल नियम के मुताबिक है। कानून खुद कहता है कि सीबीआई निदेशक का इस तरह ट्रांसफर नहीं होगा। आलोक वर्मा को जिस समिति ने चुना था, उसकी मंजूरी जरूरी है।
उन्होंने दलील दिया था कि आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने के आदेश का कोई आधार नहीं है। अगर कोई गलत हुआ, जिसकी जांच की जरूरत है तो कमेटी के पास जाना चाहिए था। कानून में निदेशक की शक्तियों को हल्का करने का प्रावधान नहीं है। अगर सीबीआई निदेशक घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़े जाते तो फिर केंद्र को कोर्ट में या फिर समिति के सामने जाना होता। कानून में कहीं नहीं है कि इस तरह वनवास पर भेजा जाए। अगर इस दौरान आसाधारण हालात में सीबीआई निदेशक का ट्रांसफर किया जाना है तो कमेटी की अनुमति लेनी होगी।
कॉमन कॉज के वकील वकील दुष्यंत दवे की दलील
वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कामन काज नामक संस्था का पक्ष अदालत में रखा था। उन्होंने अपनी दलील में कहा था कि सीवीसी को शिकायत अगस्त में मिली थी और कार्रवाई अक्टूबर में हुई। इसका मतलब ये है कि वर्मा को सरकार ने कुछ करने से रोकने के लिए हटाया। आलोक वर्मा को हटाने के लिए डीपीएसई एक्ट को बायपास किया गया। ये आदेश अवैध है।
क्या दलील थी सीवीसी के वकील की
मलिकार्जुन खड्गे के तरफ से उसका पक्ष रखने के लिये वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने पक्ष रखते हुवे दलील दिया था कि सीवीसी सिर्फ भ्रष्टाचार के मामले देखता है जबकि सीबीआई अन्य केस भी देखता है। तो फिर सीबीआई के प्रशासन की जिम्मेदारी निदेशक की है। भ्रष्टाचार निवारण के मामलों में निगरानी की जिम्मेदारी सीवीसी की है तो बाकी मामलों में निदेशक का अधिकार है।
उन्होंने दलील देते हुवे कहा था कि सीबीआई निदेशक जैसे ही ट्रांसफर या छुट्टी पर भेजा जाता है वैसे ही वह सारे अधिकारों व सरंक्षण से वंचित हो जाता है। सीवीसी को सीबीआई निदेशक को हटाने या उसके आफिस को सील करने या काम करने न देने का अधिकार नहीं है। सीबीआई निदेशक का मामला उस समिति को ही जाना चाहिए जिसने उसे चुना है। अगर ऐसे फैसलों और प्रक्रिया को हम मंजूर करेंगे तो सीबीआई की स्वायत्तता का क्या मतलब रह जाता है? अगर समिति के अधिकार सरकार हथिया लेगी तो जो आज सीबीआई निदेशक के साथ ही रहा है वही कल सीवीसी और सीईसी के साथ भी हो सकता है।
जाने आखिर क्या है मामला
गौरतलब है कि छुट्टी पर भेजे जाने के आदेश के खिलाफ सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। इस बीच केंद्र सरकार ने 23 अक्टूबर को सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया। इसके साथ ही ज्वाइंट डायरेक्टर एम नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गई है। करीब 13 अधिकारियों का तबादला भी कर दिया गया। इससे पहले स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के खिलाफ रिश्वतखोरी के आरोप में सीबीआई ने मुकदमा दर्ज किया है।
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