फ़ारुख हुसैन
पलिया कलां
जंगलों में बसी थारू जनजाति की महिलाओं की कसीदाकारी को पंख लग गए हैं। कभी जंगलों से जलौनी लकड़ी बेचकर परिवार का भरण पोषण करने वाली यहा की महिलाओं ने हाथों के हुनर को आत्म निर्भरता का जरिया बना लिया है। इन महिलाओं ने अपने पारंपरिक लहंगा और डलिया के साथ ही आकर्षक दरी और पावदान आदि आदि भी बनाना शुरू कर दिया है।
थारू बाहुल्य इन गावों में जन सुविधाओं का अभाव भले ही हो, लेकिन यहा की गलियों में हस्तशिल्प कला ने विशिष्ट पहचान बना रखी है। आधुनिकीकरण के दौर में भी इस गाव की महिलाओं ने डलिया निर्माण की कला को जीवित रखा है। पलिया विकास खंड में करीब चालीस गांव थारू बाहुल्य हैं। जिनमें करीब चालीस हजार की आबादी निवास करती है। थारू परिवार महंगाई की मार से बेहाल जरूर हैं, लेकिन हस्तशिल्प की कला से वह विमुख नहीं हुए हैं। गरीब परिवार की इन महिलाओं ने परिवार के जीवन-यापन के लिए ही सही, कला सृजन में जुटी हैं।
बाजार की जरूरत
थारू लहंगा और डलिया बनाने में लगी सुधा, सावित्री, आशा, गीता, निर्मला, किरन, सुमित्रा, रामवती का कहना है कि हमारी कला के लिए जिले में कोई निश्चित बाजार न होने के कारण उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। तैयार माल को बाजार तक आसानी से पहुंचाने की व्यवस्था हो तो बड़ी संख्या में परिवारों को रोजी-रोटी उपलब्ध कराई जा सकती है और यह एक अच्छे व्यवसाय के रूप में पनप सकता है।
प्रासंगिक है लहंगा व डलिया
आधुनिकीकरण के दौर में सामाजिक ढाचे में डलिया की स्वीकार्यता खत्म नहीं हुई है। लखनऊ महोत्सव में इन महिलाओं ने इन डलियों का स्टाल लगाया था, जहा पर डलिया बिक्री से इन्हें काफी आय भी हुई।
पलायन पर लगा विराम
अपनी पारंपरिक कला के सृजन में जुटी इन महिलाओं को रोज़ाना मजदूरी की तलाश में नहीं भटकना पड़ता है। आजीविका के साधन गाव में ही उपलब्ध हो जाने के कारण पलायन पर भी विराम लगा है। कच्चे माल की उपब्धता स्थानीय स्तर पर आसानी से हो जाती है। खेतों, बागों और सड़कों के किनारे उगने वाली मूज लाकर डलियों का निर्माण करती है। तराई इलाका होने के कारण क्षेत्र में यह मूज बहुतायत में पाई जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में श्रम के अलावा अन्य कोई खर्च नहीं होता। लहंगा और डलिया बनाकर रखने में अधिक रख-रखाव की जरूरत नहीं होती।
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