अनिला आज़मी
नई दिल्ली। महाराष्ट्र के दंपति यास्मीन जुबेर अहमद पीरज़ादा और जुबेर अहमद पीरज़ादा की याचिका मे सबरीमाला मंदिर की तर्ज पर सबको लैंगिक आधार पर भी बराबरी का अधिकार देने की मांग करते हुवे मस्जिद में महिलाओं के सबके साथ नमाज़ पढने की मांग वाली एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए तैयार हो गई है। याचिका में संविधान के अनुच्छेद 14,15,21, 15 और 29 का हवाला दिया गया है।
इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट मामले में सुनवाई के लिए तैयार हो गया है और परीक्षण करेगा कि क्या महिलाओं को मस्जिद में सबके साथ नमाज पढ़ने की इजाजत दी जा सकती है या नहीं। कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार, सेंट्रल वक्फ काउंसिल और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को नोटिस भी जारी किया है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता से पूछा कि राज्य का अधिकार देने का कर्तव्य है, लेकिन क्या कोई व्यक्ति (नॉन स्टेट एक्टर) संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत दूसरे व्यक्ति से समानता का अधिकार मांग सकता है ? मस्जिद या चर्च क्या राज्य हैं, और इस मामले में स्टेट कहां शामिल है ? कोर्ट ने कहा कि हम इस मामले को सबरीमाला मंदिर केस की वजह से सुन रहे हैं।
क्या कहती है शरियत
बताते चले कि इस्लाम में मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश पर किसी प्रकार की कोई पाबन्दी नही है। बल्कि कई मस्जिदे मुल्क में ऐसी है जहा महिलाए नमाज़ पढ़ती है। मगर महिलाओ के आने जाने के मस्जिद के अन्दर मार्ग और उनके नमाज़ पढने के स्थान पुरुषो से अलग होते है। इसके उद्देश्य केवल महिलाओ की सुरक्षा और सहूलियत होती है। इसका एक अन्य कारण ये भी है कि इस्लाम में महिलाओं के नमाज़ पढने का तरीका और पुरुषो के नमाज़ पढने का तरीका अलग अलग है। दूसरा कारण शरियत में महिलाओ के सम्मान में पर्दा प्रथा भी है। पुरुषो को किसी गैर महिला को देखने तक की पाबन्दी है। शरियत में यहाँ तक है कि यदि कोई पुरुष बवजू किसी नामोहरम (गैर) महिला को भर नज़र देख लेता है तो उसका वजू टूट जायेगा और उसको दुबारा वजू करना पड़ेगा। इन सभी पाबंदियो के कारण महिलाये मस्जिद में नमाज़ नही पढ़ती है और घर में ही नमाज़ अदा कर लेती है।
क्या है मुस्लिम समाज का नजरिया
शेख जव्वाद – (युवा मुस्लिम चिन्तक) – वही इस प्रकरण में मुस्लिम समाज का नजरिया ख़ामोशी का ही है। हमसे बात करते हुवे समाजसेवक शेख जव्वाद ने कहा कि वैसे भी इस मामले पर किसी बहस का कौन सा फायदा है। हम मुस्लिम अदालत के फैसले का सम्मान करते है। अदालत जो फैसला देगी वह हमारे सर आँखों पर है। अब सरकार ही हमारे मसलो पर अपने हुक्म थोपने लगे तो क्या कहा जा सकता है। मसलन तीन तलाक का मुद्दा ही ले ले, जब शरियत में तीन तलाक है ही नही और उसको बीदत माना गया है तो फिर कानून बनाकर डंडे के खौफ पर उसको रोकने का क्या मतलब बनता है। ये सब चुनावी स्टंट भी हो सकता है।
नाहिद फातिमा (सम्पादक, सियासत अख़बार व मुस्लिम चिन्तक) वही इस मामले पर हमसे बात करते हुवे मुस्लिम बुद्धिजीवी समाज की नवयुवा सामाजिक कार्यकर्ती और सियासत अखबार की सम्पादक नाहीद फातिमा ने कहा कि “इस्लाम ने औरतो को समाज में उसके हक दिलाने में सब से अहम रोल अदा किया है। इसका सब से बड़ा उदाहरण ये है कि हज के दौरान मर्द और औरते एक साथ न सिर्फ नमाज़ अदा करते है, बल्कि हज के बाकी अरकान भी अदा करते है। इस्लाम औरतो पर किसी तरह की पाबंदी नही लगता। लेकिन अपनी सुरक्षा को लेकर अलर्ट रहना ज़रूर सिखाता है।
नाहिद ने कहा कि मुस्लिम महिलाएं जमात के साथ मस्जिद में नमाज़ अदा कर सकती है। उसके कोर्ट जाने की ज़रूरत ही नही है। ये मज़हबी मामला है, इसके फैसले कोर्ट लेकर जाना कोर्ट का टाइम खराब करना है। भारत के अलावा दूसरे देशों में महिलाएं मस्जिदों में नमाज़ अदा करती है। नमाज़ वास्तव में मेडिटेशन है अपने ध्यान को केंद्रित करना नमाज़ का मक़सद होता है। इसलिये कोई भी व्यक्ति मस्जिद में औरतो की जमात के साथ नमाज़ की पैरवी करता है, तो वो ये भी सुनिश्चित करे कि मस्जिद में 5 बार औरतो के आने की वजह से किसी भी तरह का सामाजिक भ्र्ष्टाचार को बढ़ावा नही मिलेगा। क्योंकि हम अपने देश मे किसी भी ऐसे स्टेशन को देखे जहा मर्द औरत एक साथ इकट्ठा होते है वही सेक्सुअल क्राइम और भ्र्ष्टाचार की खबरे आने लगती है। नमाज़ अपनी तवज्जो अल्लाह पर लगाने का नाम है। नमाज़ घर अदा कर या मस्जिद में लेकिन उसमें खुलूस होना ज़रूरी है।
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