तारिक आज़मी
नई दिल्ली: बिहार के मुज़फ्फरनगर में मौत के गाल में समा चुके बच्चो की मौत के बाद जहा बड़े बड़े वायदे होना शुरू हो गए है। वही दूसरी तरफ राजनैतिक आरोप प्रत्यारोप लगने का सिलसिला भी शुरू हो चूका है। आपका पसंदीदा चैनल इस मुद्दे को भूलने में आपकी दिलोजान से मदद कर रहा है आपको उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिये। बुरी यादो को भूलना अच्छी बात है ये कहने वालो की कमी आपको समाज में नही मिलेगी। शायद आपका पसंदीदा अखबार भी इसी प्रयास में लगा हुआ होगा। मगर साहब हकीकत तो ये है कि बच्चो की असमय मौत ने अन्दर तक हमे और आपको हिला कर रख दिया है। आज कोई इस बात पर बहस करने को आपसे तैयार नही होगा कि गरीबी और भूख का शिकार ये बच्चे आखिर देश का भविष्य थे और वर्त्तमान को भविष्य के बारे में सोचना ज़रूरी है।
बताया तो साहब ये गरीब के बच्चे थे। अगर इतनी ज्यादा संख्या में मौते न हुई होती तो शायद आपको इस घटना का पता भी नही चलता। गरीब के बच्चे है साहब कौन सा किसी मंत्री जी की भैस है जो चोरी के चंद घंटो के अन्दर ही बरामद हो जायेगी और जिसकी बरामदगी के लिए पूरा पुलिस महकमा परेशान हो जायेगा। गरीबो की आवाज़ ही कहा होती है साहब जो हम सुन सके। आवाज़ तो अमीरों की होती है। मगर इस सबके बीच हम भूल जाते है कि देश में बहुमुखी प्रतिभा के धनि प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी एक गरीब के बेटे थे। वैसे वक्त वो जाने कब के काफूर हो चुके है क्योकि अब तो चुनाव भी पैसो की कीमत पर लड़ा जा सकता है। आप खुद देख ले आपके इलाके का कार्पोरेटर तक किसी अमीर परिवार से सम्बंधित होगा।
फिर काहे का हम रोना रोते है गरीबी का। जब गरीबी से निजात पाने की योजनाये ही वातानुकूलित कमरों में बैठ कर बनेगी तो मौसम की मार के बारे में हमको कहा से अंदाज़ा हो जायेगा। आज आपका पसंदीदा चैनल इस पर बहस करता नही दिखाई दे रहा है कि खुद को सुशासन बाबु का ख़िताब लगाये हुवे नीतीश कुमार स्वास्थ के मामले में पहले से और भी चार कदम पीछे चल रहे है। ऐसा हम नही बल्कि आकडे कह रहे है। जिस राज्य में दस हज़ार लोगो पर एक स्वास्थ केंद्र होगा वहा की आम इंसानों की सेहत का ख्याल कैसे रखा जा सकता है ये सोचने वाली बात होगी।
बिहार में स्वास्थ व्यवस्था चरमराती हुई दिखाई दे रही है। या फिर इसको ऐसे भी कहा जा सकता है कि सुशासन बाबु की स्वास्थ्य व्यवस्था सवालों के घेरे में है। आपको ये सब तथ्य और आकडे गंभीर और चौंकाने वाले लगेगे। मुजफ्फरपुर में लगातार हो रही बच्चों की मौत के बीच बिहार की खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवा बिल्कुल की हकीकत खोल चुकी है। अगर इन आकड़ो पर नज़र दौडाये तो आपको यह बात साफ़ हो जायेगी कि बिहार का स्वास्थ महकमा लगभग फेल ही रहा है। यहाँ 10 हज़ार 100 लोगो पर एक स्वास्थ केंद्र है। ऐसा नही है कि बिहार की मौजूदा हुकूमत को ऐसी व्यवस्था वरासत में मिली है बल्कि वरासत में मिली इस जायदाद को हुकूमत संभाल नही पाई ये बात साफ़ है।
बिहार इकॉनोमिक सर्वे 2018-19 के मुताबिक बिहार में प्रति 10 लाख लोगों पर 2012 में औसतन 109 स्वास्थ केंद्र थे जो 2016 में घटकर 100 हुए और फिर दो साल बाद और घट कर 2018 में 99 हो गए। यानी 7 साल में बिहार में 10 लाख लोगों पर औसत हेल्थ सेंटरों की संख्या 10 कम हो गई। अब आप खुद समझे कि बिहार की मौजूदा हुकूमत ने वरासत को किस तरह संभाला होगा। बीजेपी सांसद सुशील सिंह कहते हैं राज्य में आबादी में हो रही बढ़ोत्तरी के अनुपात में हेल्थ सेन्टरों की संख्या में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए थी। ये ऐसे वक्त पर हुआ जब इन वर्षों में बिहार की जनसंख्या में अच्छी बढ़ोत्तरी रजिस्टर की गई। यही हालत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की भी रही है जिनकी संख्या में ना के बराबर वृद्धि हुई है।
2012-2018 के बीच प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की संख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई, वो 533 पर बने रहे। इन सात वर्षों में स्वास्थ्य उप केंद्र की संख्या 9696 से बढ़कर 9949 हो गई, यानी सिर्फ 2.54% की बढ़ोत्तरी। अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 1330 से 1379 हुए। यानी सिर्फ 3.6% की बढ़ोत्तरी। अगर सभी स्वास्थ्य केंद्र को देखें तो 2012-2018 के बीच इनकी संख्या 11,559 से 11,891 तक पहुंची। यानी इन साल वर्षों में इनकी संख्या में सिर्फ 2।6% का इज़ाफा हुआ।
यही नही हकीकत और भी है। स्वास्थ महकमा जहा खुद बिमारी की हालत में खड़ा नज़र आयेगा। स्वास्थ केन्द्रों का ये हाल तब है जब चार साल में बिहार सरकार का स्वास्थ्य बजट 83 फ़ीसदी बढ़ा है। 2014-15 में स्वास्थ्य पर बिहार सरकार का कुल खर्च 3604 करोड़ था जो 2017-18 में ये बजट बढ़कर 6535 करोड़ रुपये हो गया।
अब आप खुद सोचे कि क्या बिहार सरकार को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये। खुसूसी सूबा होने का दर्जा पाने के लिए बेताब खड़े सुशासन बाबु क्या सब कुछ विशेष राज्य का दर्जा मिलने के बाद का प्लान बना कर बैठे है?
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