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तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – रेत होती गंगा के सफाई बजट में इतनी बड़ी कटौती

तारिक आज़मी

गंगा के अस्तित्व की लड़ाई के लिए काफी लोग प्रयास कर रहे है। ये लड़ाई किसी जाति धर्म पर आधारित नही है बल्कि ये लड़ाई खुद के लिए है। शायद आपकी याद दिलाने की ज़रूरत नही है कि किस प्रकार इस शिद्दत की गर्मी में चेन्नई पानी के लिए त्राहि त्राहि कर रहा है। ये हमारी बेफिक्री का नतीजा है कि पीने के पानी का भारत जैसे देश में यह स्थिति हुई है जहा इतना सम्मान है कि नदियों को भी माँ का दर्जा दिया जाता है।

स्वामी सानन्द ने खुद की जान दे दिया गंगा निर्मलीकरण के मांग को लेकर। कई अन्य साधू संत इसके लिए प्रयत्नशील है। किसी जाति अथवा मज़हब के पैमाने से ऊपर उठकर गंगा के निर्मलीकरण की मांग चल रही है। ज़मीनी हकीकत यही है कि गंगा का निर्मलीकरण तो आज तक नही हुआ। ऐसा नही कि सरकार ने कुछ किया नहीं। सरकार ने गंगा सफाई योजना बनाई और मोटा बजट भी दिया। मगर रेत होती गंगा का निर्मलीकरण क्या हुआ है इसको बताने से बेहतर है कि आप खुद देख ले।

वैसे व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की पोस्ट पढ़कर आप कोई भी अपने दिमाग में छवि रख सकते है। थोडा बहुत आपको फेसबुक पर भी इसके सम्बन्ध में बड़ी बड़ी बाते मिल जायेगी। मगर ज़मीनी हकीकत को देखे बिना आपकी बहस निरर्थक ही है। व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी तो गंगा को पूर्णरूप से निर्मलीकरण दिखाने के लिए बेचैन दिखाई देगा। यहाँ किसी दल के भक्ति भाव में नहीं हम आपसे गंगा भक्ति के सम्बन्ध में बात करना चाहते है। 1990 के दशक से गंगा के नाम पर शुरू कई परियोजनाओं का आप जायजा ले ले। हम किसी एक दल को अथवा किसी एक सरकार को उतरदायित्व देने की जल्दी में नहीं है। मगर हकीकत आपको देखना होगा।

मुझको याद है मेरे एक पाठक ने एक लेख को पढ़ कर मुझे कमेन्ट दिया था कि ऐसे लेख पढने के बाद लेखक का जाति और धर्म पूछने का मन करता है। ऐसे कई चुभते हुवे कमेन्ट हमारी लेखनी को धार दे सकते है। कलम को मज़हब के तराजू के तौलने वालो की कमी नही है। लिखे को पढ़कर उसका गुण और दोष लेखक के मज़हब से निकाला जाता है। क्या बताऊ नाम तो हटाने का कभी कभी मन करता है क्योकि नाम में लोग मज़हब तलाश लेते है। मगर मज़बूरी है कि नाम को परिवर्तित करके ऐसे लोगो को बढ़ावा मिलने की संभावना प्रतीत होती है। शायद ऐसा ही कुछ उस समय भी रहा होगा जब युसूफ खान को दिलीप कुमार बनने की ज़रूरत महसूस हुई होगी।

खैर हम अतीत में न जाकर वर्तमान में आते है। भटकते हुवे मुद्दों को छोड़ कर अपने असली मुद्दे पर आते है। 2014 लोकसभा चुनावों में नामांकन के पूर्व अपनी एक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक आशा जगाया था। शहर बनारस की गंगा जमुनी तहजीब और तानी बाने के रिश्तो ने उस बयान पर अपनी उम्मीदों को दुबारा ज़िन्दगी मिलती महसूस किया था जब हमारे प्रधानमंत्री और तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात सरकार ने कहा था कि “मैं आया नही हु मुझे माँ गंगा ने बुलाया है।” पुरे शहर में उम्मीद की एक लहर दौड़ पड़ी थी। स्टार से लेकर सुपरस्टार प्रचारकों के बीच आये अरविन्द केजरीवाल की चमक भी इस एक बयान से फीकी पड़ गई और बनारस ने देश को प्रधानमंत्री चुन कर दिया।

पांच साल से अधिक समय बीत चूका है। वक्त की रफ़्तार खुद में पहिये लगा कर घूम रही है। मगर गंगा की स्थिति जैसी थी वैसी ही है। गंगा के अलावा बनारस का नाम वाराणसी में समाहित नाम आसी भी अपने अस्तित्व को वापस पाने की उम्मीद पाले बैठा था मगर उसकी बुज़ुर्ग होती निगाहों की उम्मीदों भरी चमक कही गुम होने लगी है। मगर गंगा का निर्मलीकरण कितना हुआ है ये आप बनारस की सुबह का लुत्फ़ उठाते हुवे देख सकते है। मगर ध्यान रहे कि बनारस सिर्फ अस्सी घाट, दशाश्वमेघ घाट और राजेंद्र प्रसाद घाट तक नही है। बनारस में वक्त गुज़ारे तो राजघाट से लेकर अस्सी तक पूरा जाये। आपको दावो की हकीकत कही न कही दिखाई देगी।

सरकार ने पिछले बजट के अपेक्षा इस बार गंगा के नाम पर बजट भी कम कर दिया है। केंद्र सरकार ने 2019-20 के बजट में गंगा सफाई योजना के लिए आवंटित की जाने वाली राशि में भारी कटौती कर दिया है। द हिंदू  की एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय गंगा परियोजना एवं घाट निर्माण कार्य के लिए सरकार ने 2019-20 के बजट में 750 करोड़ रुपये का आवंटन किया है। वहीं, पिछले साल के बजट में इसके लिए 2250 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था। साल 2018-19 के लिए संशोधित अनुमान के मुताबिक, पिछले साल सरकार केवल 750 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाई थी।

इस साल की मई की द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के बाद जिन 100 सीवेज इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का गठन हुआ था उनमें से एनडीए सरकार केवल 10 परियोजनाएं पूरी कर सकी। वहीं, जो 10 परियोजनाएं पूरी हुईं वे भी पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान शुरू हुई थीं।

राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के तहत गठित की गईं अधिकांश परियोजनाएं उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के सबसे प्रदूषित शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) और सीवर लाइन बिछाने के बारे में थीं। इस मिशन के लिए जारी होने वाली राशि में से करीब 1200 करोड़ रुपये रिवर फ्रंट के विकास, घाटों की सफाई और नदी से कचरा हटाने के लिए हैं। इस साल मई तक उपलब्ध ताजा आंकड़ों के मुताबिक विभिन्न परियोजनाओं के लिए 28,451 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई। लेकिन उनमें से केवल 25 फीसदी रकम यानी 6966 करोड़ रुपये ही खर्च की जा सकी। वहीं, 298 परियोजनाओं में से केवल 99 ही पूरी हो सकीं। राज्य एवं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की निगरानी रिपोर्ट्स के अनुसार, जिन शहरों से गंगा गुजरती है उनमें से किसी में भी पानी न तो नहाने और न ही पीने के लिए सही है।

अब आप व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से प्राप्त जानकारी को छोड़े और द हिन्दू के मई अंक की ये रिपोर्ट पढ़े। उसके बाद आपका दिली इस्तकबाल है पुरातन शहर बनारस में। आप आइये यहाँ की कचौड़ियो के साथ जलेबी का सुबह के नाश्ते में लुत्फ़ उठाये। कुछ वक्त गुज़ारे। ज़मीनी हकीकत से रूबरू हो और फिर आप हमारे लेख पर कमेन्ट कर सकते है। वैसे उनके भी कमेन्ट का हम इस्तकबाल करेगे जो पढने के बाद कलम को मज़हब के चश्मों से देखते है। कोस कोस पर बानी बदले तीन कोस पर बानी (वाणी) वाले हमारे मुल्क में सभी को विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी है।

इनपुट – द हिन्दू (मई अंक)

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