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कुछ बोल के लब आज़ाद है तेरे – नेता जी लोग, मऊ के हलधरपुर की यह जनसमस्या हल करवा दे

तारिक आज़मी/ बापुनन्दन मिश्र

मऊ – विचारों के अभिव्यक्ति की आज़ादी की एक परिभाषा सबसे कम शब्दों में अगर देना हो तो मात्र चाँद हर्फो को मिलाकर बना ये शब्द “बोल के लब आज़ाद है तेरे” ही रहेगा। हम अपने मन के चल रही हलचल को ज़ाहिर नही कर पाते है। हम जानते है कि अमुक कार्य गलत हो रहा है, मगर फिर भी हमारी आवाज़ किसी अनचाहे खौफ से नही उठती है। सब मिलाकर हम एक ऐसे समाज में जाते जा रहे है जहा क्रांतिकारी सभी को अपने मोहल्ले में कुछ चाहिए, जैसे एक गांधी जी, एक भगत सिंह, एक चंद्रशेखर आज़ाद, और हां अगर रानी लक्ष्मीबाई और टीपू सुलतान भी मिल जाए तो और बेहतर है। मगर इन सभी क्रांतिकारियों में कोई भी एक अपने घर में नहीं चाहिए बल्कि पडोसी के घरो में होने चाहिए।

हम अपनी समस्याओं को स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय पटल पर रखने के लिए अपना प्रतिनिधि चुनते है। भले एक अलग बात है कि जम्हूरियत में जिसको हम चुनते है वही हमारे लिए वीवीआईपी हो जाते है और कथित सुरक्षा के नाम पर 5 फिट दूरी से मुलाकात करते है। हम अपनी उंगलियों पर जम्हूरियत की निशानी लेकर उसको चुनते है जो हमारे सुख दुःख में खड़ा रहे। जनसमस्याओं का समाधान कर सके। मगर होता क्या है ये आपको बताने की ज़रूरत नही है। होता इसका उल्टा ही अधिकतर है। पांच साल तक जैसे तैसे दिन काट लेते है और जब दुबारा चुनाव आता है तो यही हमारे पास दुबारा वोट मांगने आ जाते है।

बहरहाल, आज हम आपको लेकर चले चलते है हलधरपुर रेलवे स्टेशन के पास। इस रेलवे स्टेशन के बगल से जाने वाला रास्ता जो आठ-दस गांव का मुख्य मार्ग है। जिससे वह रेलवे ट्रैक पार कर मऊ बलिया रोड पर आ कर अपनी जरूरतें पूरी कर सकते हैं। इनके कष्टों का हमने अहसास किया देखा और महसूस किया। कष्ट तो तब होता है जब कोई ट्रैक को पार कर इस तरफ़ अथवा उस तरफ जाता है, और कभी-कभी ट्रैक पर ही गिर जाता है। उसकी गाड़ी पत्थरों के बीज फस जाती है और वह पार करने में असमर्थ हो जाता है। फिर उसको इंतज़ार रहता है कि कोई भला माणूस आये और उसकी गाड़ी को धक्के लगा कर पार कर दे।

हर बार चुनावों में ग्रामीणों के मतों पर अपना अधिकार बताते हुवे विभिन्न दलों के लोग आते है और वायदा करते है कि इसका निस्तारण तुरंत चुनाव बाद करेगे। मगर क्या करे साहब, वायदे तो वायदे होते है। कई सालो से हो रहे वायदे आज भी वफ़ा नही हुवे हैं और जो सियासत की रफ़्तार है लगता है कि आगे भी वायदे वफ़ा नही होंगे। वैसे ऐसा नही है कि ग्रामीणों ने अपने लब आज़ाद नही किया, हकीकत बताये तो किया है आज़ाद अपने लबो को मगर उन लबो में शायद उतनी तासीर नही है जितनी हुकूमत के कानो तक अपनी बात पहुचाने की होनी चाहिये।

ग्रामीणों ने अपना दुःख दर्द को बयां करते हुए कई बार रेलवे के आला अधिकारियों से मिलकर ज्ञापन भी सौंपा कि हमारे यहां अंडर पास की व्यवस्था कर दी जाए। लेकिन ज्ञापन तो सौंपा गया पर कोई मजबूत पैरवी नहीं हुई। कैसे होती पैरविम ग्रामीण जो ठहरे, लगातार दुःख झेलने की आदत शायद है या फिर कह सकते है कि लबो की आवाज़ उनकी इतनी ही दूर तक जा सकती थी तो उन्होंने पंहुचा दिया। रहा काम मीडिया का तो आपको बताने की ज़रूरत स्टीम मीडिया क्या कैसा रुख है। स्थानीय पत्रकार थोडा बहुत लिखते हैं मगर आपको भी पता है कि वह आवाज़ कहा तक पहुच सकती है।

बस यही एक बड़ी समस्या इस इलाके की है। इसलिए आज भी वह कष्ट झेला जा रहा है। वह रास्ता ऐसा है जहां ट्रैक के बगल में ही रामलीला लगती है। वहां ब्रह्म बाबा का स्थान है। लोग हमेशा आते जाते रहते हैं। लेकिन इसकी सुदी कोई नहीं लेता। उस रास्ते से आने वाले राहगीरों की समस्या का कोई अंत ही नहीं है। समझिए उस समय कितना कितने कष्ट में होता होगा जिस समय किसी की तबीयत खराब होती है, तो किस तरह लोग ट्रैक को पार करते हैं। खाट पर मरीज को लिटाकर इस तरफ़ किया जाता है, क्योकि रेलवे ट्रैक से करीब तीन से चार फीट दोनों तरफ ऊंचाई है जो बहुत ही खतरनाक और खौफनाक है।

अब देखना है कि हमारे लबो की आवाज कहा तक पहुचती है। आखिर कानो में अगर रूई हो तो कानपड़ी आवाज़ भी कहा आप पाती है। देखना होगा कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों के सुन्न पड़े कानो को खोलती है अथवा बंद ही रहती है। और लोग ऐसे ही मजबूर रहेगे।

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