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बोल के लब आज़ाद है तेरे – क्यों कोसते हो कुदरत को, ज़िम्मेदार तो हम ही है

बापूनन्दन मिश्र

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे, यह वह शब्द है जो किसी भी घटना या समस्या को अपने में समाहित कर उसकी आवाज शांति पुर्वक बुलंद कर सबके सामने ला सके। ना किसी से डर है, उसे ना किसी की हया। एक ऐसा शब्द जो गरीब असहाय के जख्मों पर मरहम लगा सके। उसी शब्द के अंतर्गत इस समय की पहिया को बताने का प्रयास कर रहे हैं, समय की चलती रफ्तार में कोई रुकना नहीं चाहता या यूं कहें किसी के पास समय ही नहीं है। समय के साथ साथ जिंदगी भी रफ्तार हो गई है। किसी को किसी से मतलब भर ही साथ निभाना है। चाहे घर हो या बाहर अथवा गांव हो। क्या हो रहा है, उस पर कोई नजर ही नहीं रखता। क्योंकि समय का अभाव है।

यदि किसी के पास समय है भी तो वह देना नहीं चाहता। उसमें उसका जुड़ाव ही नहीं, यदि कोई जुड़ाव भी रखता है, तो लोग उसे निकम्मा मानने लगते हैं कि यह फालतू लोग हैं। बस इसी क्रम में हम बताते चलें कि आज अब समय जितना कम हो रहा है जनसंख्या उतनी ही बढ़ रही है। जिसके चलते गांव के पोखरे पटकर घर बन रहे हैं। सरकारी नालियां नाले पटकर खड़ंजा और सड़क बन रहे हैं। क्योंकि शासन सत्ता का दबाव है। जब सड़क बनेगी तो कथित रूप से नेता जी क्षेत्र का विकास दिखायेगे, भले उस निर्माण में ठेकेदार से लेकर कर्मचारी तक भ्रष्टाचार की हदे पार कर जाए। भले नालियों को बंद करके सड़क को चौड़ी कर दिया जाए और पानी का निकास ही न हो सके।

सड़क चाहे जैसी भी बने, उससे क्या केवल सड़क ही तो मानव समस्या नहीं है। क्योंकि यदि नाली नहीं रहेगी, तो जलजमाव की समस्या बनी रहेगी। इसलिए सड़क के साथ-साथ जल निकलने और एकत्रीकरण की व्यवस्था भी आवश्यकता है। लेकिन यह होगा भी कैसे। हम दुखी हैं, हमारी व्यवस्था है, मगर हमारे कथित हमदर्दों की ज़िन्दगी सुचारु रुप से चल रही है। जिसमें शासन सत्ता का कोई रोक-टोक नहीं। क्योंकि सभी एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। तभी तो घर के अंदर और बाहर तालाब बना हुआ है। दूसरी तरफ हम है जो हाथ पर हाथ धर सरकार के नुमाइंदों का इंतजार कर रहे हैं।

इंतज़ार तो बेहतर है। करना भी चाहिए। सरकार को हम टैक्स देते है और फिर हमको अपने क्षेत्र के विकास कार्यो की आशा रहती है। मगर कैसी ये उम्मीद हम पाले बैठे है। माना लब आपके भी आज़ाद है, मगर खुद सोच कर बताये। आपके बचपन में आपके निकट की चट्टी पर जो पोखरी हुआ करती थी, वह अब कहा है ? सही सोच रहे है वहा अब आलिशान मकान बन चुके है। जब कुदरत के निजामो से हम खुद खेल रहे है तो फिर कुदरत के कहर को बर्दाश्त करने का माद्दा क्यों नही पाल लेते है ? भगवान को कोसा जा सकता है कि गर्मी बहुत ज्यादा है। मगर कभी जंगलो को काटते वक्त सोचा है कि इसका असर कैसा पड़ेगा ? भूगर्भ जल स्तर नीचे जाने पर सुप्रीम कोर्ट भी चिंतित हुआ। मुल्क के कई हिस्सों में इसी गर्मी में पानी की वह किल्लत हुई कि नया प्रोफेशन तैयार हो गया। पानी का कारोबार और पानी की दलाली शुरू हो गई।

कोसो दूर से लोग पानी लाने लगे। हैण्डपम्पो की याद जब सताई तो उसके मरम्मत का काम शुरू हुआ, मगर नतीजा तो सिफार आना ही था। उन हैण्ड पम्पो ने भी साथ देने से मना कर दिया। ऐसा लगा जैसे किसी दोस्त को अच्छे वक्त में हमने उसकी गरीबी को देख तिरस्कृत किया था अब जब खुद अपनी गरीबी में उसको अमीर पाया तो उसके दर पर चले गये। खुद सोचे आपके घर के पास जो हैण्डपम्प है। वह है तो सरकारी, मगर आपने उसको चलते हुवे कब देखा है ? देखिये आप बोल सकते है, लब आज़ाद आपके भी है। मगर किसी और पर उंगली उठाने से पहले आप खुद को भी आईने के सामने खड़ा करे। हम अच्छे वक्त पर अपने बुरे वक्त के साथी को भूल जाते है। कहा का इन्साफ है ये आखिर ?

पानी के विभिन्न श्रोत हुआ करते थे। शहरो में नगर निकायों ने नजूल की ज़मीने छोड़ रखा था कि वक्त ज़रूरत काम आवे। मगर हकीकत क्या है उन ज़मीनों की आप खुद देखे नज़र उठा कर। हकीकी ज़मीन पर नजूल सिर्फ कागजों में बचा हुआ है। जो ज़मीन सरकारी, वह ज़मीन हमारी के तर्ज पर हमने खुद उन ज़मीनों पर अवैध निर्माण कर रखे है। अब आप बताओ ये आलिशान महल जैसे सीना तान कर खड़े घर क्या पानी की आपकी ज़रूरत पूरी कर सकते है। अगर आपको प्यास लगी है तो क्या आप घर के कंक्रीट से प्यास बुझा सकते है। आप एकदम सही सोच रहे है। ज़िम्मेदार हम खुद है। कुदरत से खेलेगे तो कुदरत आपसे भी खेलना शुरू कर देगी ये कडवी सच्चाई है। मिया मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर ज़ेहन में उभर रहा है जिससे अपने अल्फाजो पर लगाम लगया जा सकता है कि तुम हर बात पे कहते हो कि तू क्या है ?, तुम्ही बताओ ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है ? रगों में दौड़ते फिरने के हम नही कायल, जब आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है ?

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