शब्बीर खान साबरी
महाराजगज। भारत नेपाल सीमा पर बसा ज़िला महाराजगज इस समय तस्करी का हब बना हुवा है। वही दूसरी तरफ स्थानीय प्रशासन की बंद आँखे बहुत कुछ इशारा करती है। यहाँ सिर्फ प्रशासनिक अमले या फिर सीमा पर चेकिंग करने वाले सरकारी नुमईन्दगो की कमी दर्शा कर ही बात ख़त्म नही होती है। बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ होने का दंभ भरने वाले पत्रकारों की ख़ामोशी भी इस तस्करी को समर्थन दे रही है।
तस्करों ने सीमा क्षेत्र के ठूठीबारी, बरगदवा बाजार, परसा व सोनौली अच्छी खासी अपनी पैठ बना रखा है। सायकल अथवा मोटरसायकल से होने वाली तस्करी की जाँच न हो इसके लिए अलग इंतज़ाम किये हुवे है। इनके इंतज़ाम तो इतने है कि औचक निरिक्षण की टीम आने के पहले इनको जानकारी हो जाती है। शायद इसी कारण औचक निरिक्षण टीम कभी बड़ी सफलता हासिल नही कर पाती है।
यहाँ तक कि कई बार ऐसा हुआ कि तस्करी की और गोदामों की शिकायत ऊपर के स्तर पर होती है। इसके बाद मामूर के अनुसार छापेमारी के लिए बाहर की टीम तैयार होती है। मगर सबसे अचम्भे की बात ये रहती है कि टीम को खाली हाथ लौटना पड़ता है क्योकि उनके हाथ कुछ लगता ही नही है। इसकी खास वजह है कि इस छापेमारी की जानकारी पहले से ही तस्करों को लग जाती है और आनन फानन में गोदाम खाली करवा दिया जाता है।
हालत ये है कि तस्करों के सेटिंग हेतु प्राइवेट ठेकेदारों के द्वारा सायकल से, सर पर अथवा बाइक पर होने वाली तस्करी को संरक्षण देते हुवे उनसे वसूली ये प्राइवेट लोग ही करते है, इसके अलावा पिकअप और ट्रक से सामान निकालने वाले तस्करों की सेटिंग कुछ और ही रहती है और गाडी चेक हुवे बिना ही बोर्डेर पार कर जाती है। स्थानीय जनता को दिखाने के लिए कथित रूप से पकडे जाने वाले माल अधिकतर तस्करों के मसीहा खुद पकड़वाते है ताकि बड़ी तस्करी पर नज़र ही न जाए। स्थानीय पुलिस के साथ साथ इस कृत्य में स्थानीय कुछ पत्रकारों की भूमिका भी संदिग्ध है।
अब देखना होगा कि यह खेल कब तक जारी रहता है और जिम्मेदारो के द्वारा कब ऐसी कड़ी कार्यवाही होती है जिससे तस्करी से निजात मिल सके। या फिर सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा। पहले से ही बिकाऊ के नाम से बदनाम मीडिया कब अपनी असली भूमिका में आता है ये भी विचारणीय रहेगा।
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