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तारिक आज़मी की मोर्बतियाँ – हमारी कलम से जो निकले वही सदाकत है, हमारी कलम में तुम्हारी जुबान थोड़ी है

तारिक आज़मी

वाराणसी। किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि आसान रास्तो से गुज़र जाइये जनाब, सच बोलने वाले तो सलीबो पर चढ़े है। वैस भी तवारीख उठा कर देख ले कि सुकरात को हर जन्म में ज़हर का प्याला ही पीना पड़ा है। वैसे सच लिखना और बोलना एक आसान तरीका हुआ करता था। महात्मा गाँधी ने कहा था कि सच बोलने से एक फायदा है कि उसको याद नही रखना पड़ता है। मगर हालत बदलते जाने के बाद अब सच एक मुश्किल भरा रास्ता हो चूका है।

सच एक पनघट की डगर जैसा हो चूका है। कह सकते है कि बहुत कठिन है डगर पनघट की, झटपट भर ला ओ जमुना से मटकी। मगर साहब दिक्कत ये है कि सच बोलने से अपने नाराज़ हो जाते है। वो कैसे है कलाम कि अभी तो अपने रूठे है पराये भी खफा होंगे। तो अपनो के रूठने का दौर शुरू हो चूका है। वैसे लोग सच लिखना और बोलना शायद भूलते जा रहे है क्योकि इसका एक बड़ा नुक्सान भी है कि अपने भी पराये हो जाते है। हम आईनों की शिकायते हमेशा करते रहते है कि आईना हमारी तस्वीर सही नही दिखा रहा था। मगर हकीकत कुछ इससे मुख्तलिफ होती है। हम लगातार खताओ के दौर में यही एक खता करते रहते है कि धुल चहरे पर हो मगर आईना धो लेना हमारा शौक बन जाता है।

इसी आईनों से चाँद लफ्ज़ और भी बया हो सकते है। वैसे बताते चले कि बयान को कदीमी उर्दू में बयाँ ही कहा जाता है तो बरा-ए-करम इसके ऊपर पैनलो में बैठ कर बहस न करते रहिएगा कि बयान को बयां लिख दिया। इसकी पुष्टि हुई है कि नही। बहरहाल वक्त आपका है तो बहस भी आपकी ही होगी। वैसे हम कभी कभी कह देते है कि उठा कर फेक दो आईनों को अब मेरे आगे से, बेउन्स कह रहे है कि हम पुराने हो गए। तो दरअसल आईना झूठ तो बोलता नही है बस हम ही जवानी का मुगालता पाले रहते है। उम्र कब के गुज़र का सफ़ेद होती जाती है। बस काली बदली जवानी की ढल नही पाती है।

कमाल ही कहेगे साहब, एक कल्चर की तरह बनकर उभरा पत्रकारिता को गाली देने का फैशन तो अब आम है। वैसे आलोचना का शिकार पीत पत्रकारिता भी होती रही है और वर्त्तमान में तो एक शब्द आसान हो चूका है कि बिकाऊ पत्रकारिता। वजह पूछो तो कहेगे कि आप लोग सच नही दिखाते है। वैसे आपके मुह की लाली रखने को ये भी साथ में कह देते है कि आपको छोड़ कर। वैसे आपको छोड़ कर या फिर आपको लेकर बात तो एक ही है जनाब।

इसी कड़ी में हमने भी सच लिख डाला तो अपने नाराज़ हो गए। वैसे कहा जाता है कि उड़ान पंखो की नहीं बल्कि हौसलों की होती है और कोई काम मुश्किल नहीं, चाहो तो आसमान में भी सुराख किया जा सकता है। बस तबियत से एक पत्थर उछालने की देर है। मगर पत्थर उछालो उसके पहले हेलमेट पहन लेना वरना सुना है न कि आसमां का थूका मुह पर ही आता है। मगर ऐसा नही है साहब। देर तक चर्चा उठाओ की डेमोक्रेसी लायेगे। चार दिन के बाद फिर सब भूल बिसर जायेगे।

एक सच से लोग इतने नाराज़ हो गए कि आलोचकों की भीड़ जुटाने का प्रोगाम भी हो सकता है। अगर कोई आलोचक न भी हो तो उसको भी मुखालफत में कर सकते है बस करना क्या है ? यही तो कहना है कि तुम भी हो। बस हो गये आपके मुखालिफ। बहरहाल, मेरे जैसे सिंगल चेसिस पर असर ही क्या पड़ता है। कमबख्त सेहत ही नही तो उसके ऊपर असर क्या पड़ेगा ? मगर इस मुखालफत का मुझे एहतराम बहुत है। सच कहता हु। मेरे उस्ताद ने सिखाया था तो आज भी एक शेर याद है कि मुखालफत से मेरी शख्सियत सवरती है, मैं दुश्मनों का बड़ा एहतेराम करता हु। अगर आपको मेरे सच के अलफ़ाज़ इतने बुरे लगे तो क्या कर सकता हु।

आप खुश रहो इसके लिए क्या रोज़ जाकर झूठ के पहाड़ पर चढ़कर जय हो के नारे लगाऊ। शायद मुमकिन नही। एक सच को छुपा देना और सच लिख देना दो अलग अलग सी बाते है। जान तो आप भी रहे हो कि मैं कही से गलत नही हु। अगर लगता है तो पैनल बैठा कर बहस कर सकते है। शायद गलतफहमी दूर हो जाए। या फिर खुशफहमी दूर हो जाए। वैसे भी मन करे तो शेर से लेकर बिल्ली तक पाल लेना चाहिये मगर खुशफहमी और गलतफहमी नही पालना चाहिये। कौन लोग शहंशाह-ए-वक्त है या फिर मैं खुद को अजीमो शान शहंशाह के सामने अदना गुलाम समझ रहा हु। आप जैसा कहो वैसा करू, जो कहो वही लिखू। आखिर क्यों ? क्या सच पर पहरा लगा रखा है क्या। राहत इन्दौरी साहब का वो कलाम है कि झूठो ने कहा झूठो से सच बोलो, सरकारी एलान हुआ है सच बोलो, घर के अन्दर झूठो की एक मंडी है और दरवाज़े पर लिखा है कि सच बोलो।

साहब एक बात ख्याल रखे कि जो सच होगा वही लिखूंगा। खबरों से समझौता नही होगा। खबर वही, जो हो सही। आप वाह कहे या फिर न कहे। मगर सच का गला थोड़ी घोटा जा सकता है। मेरी शख्सियत को बयां करने के लिए शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह का कलाम है कि खूब वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज्बातों से, मैं मुहब्बत लिखना भी चाहू तो इन्कलाब लिख जाता है। अब कोशिश शायद मेरी भी वही थी मगर कलम ने इन्कलाब लिख डाला तो क्या करू। वैसे साहब दिल से सलाम है। मगर एक बात कहता हु कि हमारी कलम से जो निकले वही सदाकत है, हमारी कलम में किसी और की जुबां थोड़ी है। लफ्जों का क्या है साहब वो तो मुसाफिर है। क्या है वो कि खुश रहो ए अहले वतन, हम तो सफ़र करते है। अल्फ्ज़ अगले सफ़र को निकल पड़ेगे।

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