आदिल अहमद/ मो कुमैल
कानपुर: जामिया के छात्रो द्वारा गाये गए महान उर्दू शायर फैज़ अमहद फैज़ के कलाम “लाज़िम है कि हम भी देखेगे” अब विवाद का एक केंद्र बनता जा रहा है। फैज अहमद फैज उर्दू के वह महान शायर हैं जिनका नाम साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट हुआ था, ने इस नज़्म की रचना पाकिस्तान के फ़ौजी तानाशाह ज़ियाउल हक की सत्ता के खिलाफ 1979 में लिखी थी। इस नज़्म को मशहूर पाकिस्तानी गायिका इक़बाल बानो ने ज़ियाउल हक के मार्शल लॉ को चुनौती देने के लिए लाहौर में 50000 दर्शकों के सामने गाई थी। फैज़ अहमद फैज़ कम्युनिस्ट और नास्तिक थे। उनकी क्रांतिकारी शायरी के लिए पाकिस्तानी शासकों ने उन्हें सालों तक जेल में बंद रखा।
अब एक शिकायत के क्रम में आईआईटी कानपुर ने एक जाँच कमेटी बनाया है जो इस बात की जाँच करेगी कि क्या फैज़ अहमद फैज़ का कलाम हिन्दू विरोधी है। जांच के तीन विषय हैं, पहला दफा 144 तोड़कर जुलूस निकालना, दूसरा सोशल मीडिया पर छात्रों की पोस्ट और तीसरा यह कि क्या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म हिंदू विरोधी है? आईआईटी कानपुर के डिप्टी डायरेक्टर मनींद्र अग्रवाल के मुताबिक ”वीडियो में उन्होंने दिखाया था कि मार्च से पहले स्टूडेंट्स ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक कविता पढ़ी थी। जिसका मतलब इस प्रकार से भी निकल सकता है कि वह हिंदुओं के विरुद्ध है।”
हालांकि आईआईटी के छात्रों का कहना है कि जिस शख्स की शिकायत पर उन पर जांच बिठाई गई है, ट्विटर उस पर कम्युनल पोस्ट डालने के लिए बैन लगा चुका है। लेकिन छात्रों ने अपनी ऑनलाइन मैगज़ीन में अपनी सफाई में एडिटोरियल लिखा तो आईआईटी प्रशासन ने उसे हटवा दिया।
गौरतलब है कि जामिया कैंपस में पुलिस कार्रवाई के बाद छात्रों से एकजुटता ज़ाहिर करने के लिए आईआईटी कानपुर के छात्रों ने कैंपस में एक जुलूस निकाला था जिसमें उन्होंने फ़ैज़ का यह कलाम ”हम देखेंगे…लाज़िम है कि हम भी देखेंगे” गाया था। इसके खिलाफ आईआईटी से जुड़े दो लोगों ने शिकायत की, जिस पर जांच बिठा दी गई है।
नज़्म कुछ इस तरह है कि –
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे,
वो दिन कि जिसका वादा है।
जब अर्ज़े खुदा के काबे से,
सब बुत उठवाए जाएंगे।
हम अहले सफा मरदूदे हरम,
मसनद पे बिठाए जाएंगे।
सब ताज उछाले जाएंगे,
सब तख्त गिराए जाएंगे।
अगर उर्दू के शब्दों के भाव और उनके मतलब पर ध्यान दे तो यह इस प्रकार है कि हम वो दिन भी देखेंगे। जब खुदा की ज़मीन पर बुत बनकर बैठे फ़ौजियों को उससे बेदखल किया जाएगा। जब तानाशाह के ताज उछाले जाएंगे। तख्त गिराए जाएंगे। तब शोषित और वंचित लोगों का शासन होगा।
मगर इसके बाद भी शिकायत करने वालों ने शायरी के प्रतीकों को धर्म से जोड़कर उसे हिंदू-मुस्लिम रंग दे दिया। शायद यह हमारी बदलती सोच का ही असर हो सकता है, अथवा कुछ मुट्ठी भर लोगो द्वारा बहकावे का असर भी हो सकता है। अगर ध्यान दे तो उर्दू शायरी में ऐसे तमाम प्रतीक मिलते हैं। जिनका किसी धर्म अथवा जाति से कोई लेना देना नही है और सिर्फ एक क्रांतिकारी सोच के लिए लिखे गए अशआर होते है। एक उदहारण अगर देना चाहू तो पुराने शायरों में उर्दू के मशहूर शायर मीर तक़ी मीर के एक कलाम को अगर देखे तो वह सिर्फ दिखावे का विरोध करने के लिए लिखी गई नज़्म है। उसके अशआर पर गौर करे तो धर्म से जोड़ कर भी देख लेने वालो की कमी नही मिलेगी। उन्होंने लिखा था कि मीर के दीन-ओ-मज़हब को, अब पूछते क्या हो ? उन ने तो क़शक़ा खींचा, दायर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया। इसका मतलब है कि मीर का मज़हब क्या पूछते हो। वो तो तिलक लगाकर मंदिर में बैठ गए हैं, और बहुत पहले इस्लाम छोड़ चुके हैं।
बहरहाल, जाँच शुरू हो चुकी है और मामले को लेकर आईआईटी भी गंभीर है। तीन मुद्दों की जाँच करने वाली समिति क्या निष्कर्ष देती है वह तो अभी कल के गर्भ में ही है। मगर इस मामले में लोगो की चर्चाये तो अभी से शुरू है।
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