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राम मंदिर, धारा 370 और नागरिकता संशोधन कानून पर भारी पड़ा झारखण्ड का ये पांच ज़मीनी मुद्दा जिसने दिखाया भाजपा को हार का द्वार

तारिक आज़मी

भाजपा को झारखण्ड में करारी हार का सामना करना पड़ा है। एक ऐसा राज्य जहा के चुनावों हेतु खुद प्रधानमंत्री ने 9 जनसभा किया। यही नही 11 जनसभा खुद अमित शाह और 51 जनसभाये मुख्यमंत्री रघुबर दास ने किया। इसके अनुपात को अगर जोड़े तो कांग्रेस गठबंधन के तरफ से इतनी जनसभाये नही हुई। देख कर तो लगता था कि भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोक दिया है झारखण्ड चुनावों में। मगर नतीजो पर अगर गौर करे तो नतीजे के हिसाब से भाजपा की करारी हार हुई है।

हर जनसभाओ में जनमानस के लिए मुद्दे राम मंदिर, धारा 370, नागरिकता संशोधन कानून की बात होती थी। भाजपा इसको अपनी उपलब्धि बता कर अन्य मुद्दों को दरकिनार कर देती थी। इस दौरान जमकर राम मंदिर और धारा 370 जैसे मुद्दों पर चर्चा भी भाजपा ने किया। झारखण्ड को शायद इन मुद्दों से मतलब नही रहा और वह ज़मीनी समस्याओं बेरोज़गारी, गरीबी, मोब लीचिन, महंगाई जैसी समस्याओं पर सरकार से आश्वासन चाहती थी। तभी शायद ये बड़े बड़े मुद्दे धरे रह गए और और सोरेन के ज़मीनी तथा स्थानीय मुद्दों ने चुनावों में अपनी जीत दर्ज किया। भाजपा की हार भी कोई ऐसे कमतर आकने वाली नही रही है। इस हार का अंदाजा आप इसी से लगा सकते है कि खुद मुख्यमंत्री रघुबर दास अपनी सीट पर चुनाव हार गए है।

आइये जमीनी मुद्दों पर बात करे जिन मुद्दों ने भाजपा को ऐसी हार का सामना करवाया है। अगर स्थिति के अनुसार देखे तो कुल 5 स्थानीय मुद्दों ने भाजपा के बड़े मुद्दों को दबा डाला और जीत गठबंधन के खाते में डलवा दिया। ये मुद्दे सभी के सभी स्थानीय थे और राष्ट्रीय मुद्दों से जनता ने अपना सरोकार होने से इनका कर डाला। आइये एक एक करके मुद्दे और उनके कारणों पर गौर करते है।

मॉब लिंचिंग और भूखमरी

पिछले पांच साल के दौरान झारखंड के विभिन्न जगहों पर हुई मॉब लिंचिंग में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने और भूख के कारण कई लोगो की मौत होने जैसे मामले भी भाजपा की सरकार के ख़िलाफ़ गए। लोगों को लगा कि यह सरकार अल्पसंख्यकों के विरोध में काम कर रही है। इस दौरान मुसलमानों और ईसाइयों पर हमले और मॉब लिंचिंग में उनकी हत्या की घटनाएं भी सरकार के ख़िलाफ़ गईं।

सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मामले को देशव्यापी स्तर पर उठाया। विपक्ष ने इसे चुनावी प्रचार का हिस्सा बनाया और रघुवर दास की सरकार लोगों को अपने जवाब से संतुष्ट नहीं कर सकी। धर्मांतरण क़ानून को लेकर मुख्यमंत्री के सार्वजनिक बयानों के कारण ईसाई समुदाय में काफी नाराजगी देखी गई।

भूमि अधिग्रहण क़ानून मे संशोधन की कोशिश

भूमि अधिग्रहण क़ानून की कुछ धाराओं को ख़त्म कर उसमें संशोधन की कोशिश भी आदिवासियों की नाराज़गी का कारण बनी। विपक्ष ने एक निजी कंपनी के पावर प्लांट के लिए गोड्डा में हुए ज़मीन अधिग्रहण के दौरान लोगों पर गोलियां चलवाने के आरोप लगाए। इसमें आदिवासियों और दलितों की ज़मीनें फर्जी ग्रामसभा के आधार पर जबरन अधिग्रहित कराने तक के आरोप लगे। सरकार यह समझ ही नहीं सकी कि इसका व्यापक विरोध होगा। इससे लोगों की नाराज़गी बढ़ती चली गई।

भूमि क़ानूनों में संशोधन

आदिवासियों के ज़मीन संबंधी अधिकारों की रक्षा के लिए बने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) में संशोधन की भाजपा सरकार की कोशिशों का राज्य के आदिवासियों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। विधानसभा में विपक्ष के वॉकआउट के बीच पारित कराए गए संशोधन विधेयक पर गृह मंत्रालय तक ने आपत्ति जताई। विपक्ष ने सदन से सड़क तक यह लड़ाई लड़ी और राष्ट्रपति से इस विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करने का अनुरोध किया।

आपत्तियों के बाद राष्ट्रपति ने इस विधेयक को वापस लौटा दिया। फिर सरकार ने इसे दोबारा नहीं भेजा और ये संशोधन नहीं हो सके। इसके बावजूद राज्य भर के आदिवासी समाज में इसका गलत मैसेज गया। भाजपा उन्हें यह समझाने में नाक़ाम रही कि ये संशोधन कथित तौर पर आदिवासियों के पक्ष में थे।

मुख्यमंत्री रघुबर दास की छवि

पिछले कुछ सालों के दौरान मुख्यमंत्री रघुबर दास की व्यक्तिगत छवि काफी ख़राब हो गई थी। एक तबके को ऐसा लगने लगा था कि मुख्यमंत्री अहंकारी हो गए हैं। इससे पार्टी के अंदरखाने भी नाराजगी थी। तब बीजेपी में रहे और अब रघुबर दास के ख़िलाफ़ चुनावी मैदान में डटे सरयू राय ने कई मौक़े पर पार्टी फोरम में यह मुद्दा उठाया, लेकिन नेतृत्व ने उनकी आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष व गृहमंत्री अमित शाह हर बार रघुबर दास की पीठ थपथपाते रहे। इस कारण रघुबर दास के विरोधी ख़ेमे मे नाराज़गी बढ़ती चली गई। यह भाजपा की हार की सबसे बड़ी वजह बताई जा रही है।

बेरोज़गारी, पत्थलगड़ीअफ़सरशाही

पिछले पांच साल के दौरान बेरोज़गारी, अफ़सरशाही और पत्थलगड़ी अभियान के ख़िलाफ़ रघुबर दास की सरकार की नीतियां भी भाजपा के ख़िलाफ़ गईं। इससे मतदाताओं का बड़ा वर्ग नाराज़ हुआ और देखते ही देखते यह मसला पूरे चुनाव के दौरान चर्चा में रहा।

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