तारिक आज़मी
उर्दू के मशहूर और अज़ीम शायर फैज़ अहमद फैज़ शायद उस समय भी उतनी लोकप्रियता नही पा सके होंगे जितनी लोकप्रियता उनके नज़्म “लाजिम है कि हम भी देखेगे” पर कुछ कुंठित मानसिकता का परिचय देने वालो ने विवाद खड़ा करके उनको दे दिया है। जिसको उर्दू के अल्फाजो की नजाकत नही पता हो वह भी उस नज़्म पर अपनी प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर देने को बेताब दिखाई दे रहा है। जिसको लाजिम, अहले सफा, हरम, लौह-ए-अज़ल, मौकुमो जैसे अमूमन बोलचाल के उर्दू अल्फाजो की नजाकत और मायने नही पता हो वह भी सोशल मीडिया पर उसके ऊपर अपनी प्रतिक्रिया देता दिखाई दे रहा है।
गौरतलब हो कि सीएए पर विरोध प्रदर्शन के दौरान जामिया के छात्रो ने ये क्रांतिकारी नज़्म पढ़ा था। जिसके बाद दिल्ली पुलिस की बर्बरता के बाद आईआईटी कानपुर में हुवे विरोध प्रदर्शन में छात्रो ने इस नज़्म को पढ़ा था। इसके बाद कुछ विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन कर इसके खिलाफ एक शिकायत दर्ज करवाई गई थी कि छात्रो ने “इस हिन्दू विरोधी नज़्म” को पढ़ा था। फिर क्या था, आईआईटी कानपुर प्रशासन ने तुरंत इसके ऊपर जाँच बैठा दिया कि फैज़ ने ये नज़्म कही “हिन्दू विरोधी तो नही लिखा है।” इस जाँच बैठने के समाचार के बाद इस नज़्म ने एक शोहरत हासिल किया। शायद फैज़ अहमद फैज़ की हयात में भी इस नज़्म ने उतनी शोहरत नही हासिल किया होगा जब तानाशाह जियाउल हक़ ने उनको कैद करवा लिया था।
वैसे कहा जाता है कि हो होता है अच्छे के लिए ही होता है। शायद हमारी सकारात्मक मानसिकता के लिए यह शब्द उम्दा ही होगा। क्योकि इस नज़्म पर उठे विवादों ने एक बार फिर से इस नज़्म को ज़िन्दगी दे डाली है। सिर्फ नज़्म ही नहीं बल्कि फैज़ अहमद फैज़ के विचारों को ही नई ज़िन्दगी दे डाली है। अमूमन केवल साहित्य के छात्रो द्वारा रोचक दिखाई देने वाले फैज़ अहमद फैज़ अब आम जन के लिए रोचक बन गए है।
गूगल बाबा को सबसे ज्यादा व्यक्ति विशेष के लिए इन्ही पर ध्यान केंदित करना पड़ रहा है। रोज़ ही लाखो की तय्दात में उनकी यह नज़्म युट्यूब पर सर्च हो रही है और सुनी जा रही है। दिलचस्प यह है कि फैज को जानने की तलब लोगों में बढ़ गई है। हैंडलूम एक्सपो में लगे बुक स्टाल पर उनकी किताबें हाथों हाथ बिक रही हैं। बृजेंद्र स्वरूप पार्क में लगे हैंडलूम एक्सपो में पुस्तकों की बिक्री देखकर इसका साफ एहसास होता है।
पुस्तक विक्रेता देवेंद्र नाथ कहते हैं कि आमतौर पर फैज को पढऩे वालों की संख्या बेहद सामान्य रहती है। साहिर लुधियानवी, फैज अहमद जैसे शायरों की किताबें इक्का-दुक्का ही बिकती हैं। इसलिए स्टाल पर फैज की तीन पुस्तकों की 25 प्रतियां ही रखी गई थीं। इसमें उनकी संक्षिप्त जीवनी, नज्में और शेर दिए गए हैं। 25 में से 23 किताबें बिक गई हैं। कुछ पाठकों ने इन्हें मांगा भी है। पहली बार ऐसा हुआ है कि प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा बिक्री फैज की है। विवाद के कारण उनमें लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है, इसलिए और किताबें मंगाई जा रही हैं।
आइये फैज़ अहमद फैज़ साहब की इस नज़्म से आपको रूबरू करवाते है। उनकी नज़्म में जो मुश्किल उर्दू अदब के अलफ़ाज़ है उनके मायने लफ्ज़ के बाद लिख दिया गए है ताकि सभी इस नज्म का लुत्फ़ उठा सके।
हम देखेंगे
लाज़िम (ज़रूरी) है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल (विधि के विधान) में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां (घने पहाड़)
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों (रियाया या शासित) के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम (सत्ताधीश) के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत (सत्ताधारियों के प्रतीक पुतले) उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा (साफ़ सुथरे लोग), मरदूद-ए-हरम (धर्मस्थल में प्रवेश से वंचित लोग)
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह (ईश्वर) का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी,
जो मंज़र (दृश्य) भी है नाज़िर (देखने वाला) भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ (मैं ही सत्य हूँ या अहम् ब्रह्मास्मि) का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा (आम जनता)
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
अब आप खुद सोचे कि इतनी खुबसूरत नज़्म को भी बदलती चंद मुट्ठी भर लोगो की मानसिकता ने शक के कटघरे में खड़ा कर डाला है। मगर हम फिर भी यही कहेगे कि जो होता है भले के लिए ही होता है। शायद फैज़ अहमद फैज़ को अभी और शोहरत मिलना बाकी था तभी ऐसा विवाद खड़ा हुआ।
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