डॉ मोहम्मद आरिफ
हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
बात राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल के अंतिम दिनों की है। सुल्तानपुर का निवासी होने के कारण उनसे मिलना बड़ा आसान था और कई बार तो उनका सहृदय और निर्छल होना भी मुलाकात में बहुत सहायक साबित होता था। ऐसे ही एक बार सुल्तानपुर डाक बंगले में उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ और बातों बातों में जब उन्हें पता चला कि मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ और मेरी रुचि और अध्ययन आजादी के आंदोलन में है तो बरबस उन्होंने कहा कि क्यों न 1857 की क्रांति में उत्तर प्रदेश की जनता की भागीदारी का पुनर्मूल्यांकन किया जाए।
उन्होंने ये भी कहा कि सुल्तानपुर का गाँव गाँव 1857 लोगों के संस्मरणो में भरा पड़ा है। मैंने कई बार अपने मंचो पर इसका बखान सुना है और कुछ जानने की कोशिश भी की है. बहुत बार सोंचा की इस पर कुछ करना चाहिए. लेकिन व्यस्तता के कारण ये मेरी प्राथमिकता में न आ सका, आपसे मुलाकात से फिर मेरी ये ख्वाहिश जाग उठी। आप कोई योजना बनाएं और विद्वानों से बात करें, किसी तरह की कमी आड़े हाथों नही आएगी। मैने कहाकि एक विनम्र सुझाव देना चाहता हूँ कि 1857 की क्रांति में मुसलमानों के रोल पर बातें करें, तो कैसा रहेगा क्योंकि आज़ादी की लड़ाई में उनकी भागीदारी पर इतिहासकारों ने बहुत ही कम फोकस किया है।
राजीव का बड़ा ही वैज्ञानिक और सधा हुआ जवाब था कि डॉक्टर साहब देश की कोई भी ऐसी विधा नही है जो मुसलमानों के योगदान के बगैर मुकम्मल हो सके और आज़ादी की लड़ाई तो बिल्कुल नही। आधुनिक भारत की जो परिकल्पना है वो उनके बगैर अधूरी है। परन्तु हमें इतिहास को समग्रता में देखना होगा कि कैसे धर्म,जाति और भाषा की विभिन्नता के बावजूद सब लोग संकट का सामना एक साथ मिलकर करते है और यही साझी विरासत हमारी ताकत और दुनिया में भारत की पहचान है। इसे बचाये रखने का मतलब भारतीयता को बचाये रखना है। ये थी उनकी भारतीय समाज और इतिहास की समझ। मैं मंत्रमुग्ध होकर उनकी बात सुनता रहा और अब मेरे पास जवाब देने के लिए शब्द ही नही बचे थे।
फिर राजीव गाँधी के एक प्रस्ताव से में चौक पड़ा कि इसे जिलेवार लिखा जाए और सुल्तानपुर का इतिहास लेखन आपके हवाले। हमने इस पर काम करना शुरू किया पर समय की गति कौन जानता है, राजीव नही रहे। 21 मई 1991 को उनकी हत्या हो गयी। मैं भी अपनी रोजी रोटी कमाने की व्यस्तता में इतना खो गया की यह काम अधूरा रह गया। इधर कुछ दिनों से हमने इस काम की नए सिरे से रूपरेखा बनानी शुरू की है. क्योंकि मुझे लगता है कि राजीव गांधी की पैनी निगाहों ने ये भांप लिया था कि आने वाला वक़्त तथ्यपरक इतिहास लेखन के लिए संकट भरा होगा। उनकी ये सोंच आज सच साबित हो रही है और ऐतिहासिक तथ्यों को नकारने की प्रवित्ति तेजी से बढ़ रही है। उनकी सोंच को अमल के लाना एक कर्ज़ है मुझ पर राजीव का, जिसे उतारने के लिए मैं आजकल काम कर रहा हूँ। मेरी तरफ से सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी इस महान भारतीय सपूत को——-
लेखक जाने-माने इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं
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