तारिक़ आज़मी
बिहार के गोपालगंज स्थित सत्तरघाट पर बने महासेतु की अप्रोच रोड टूट गई है। 263।47 करोड़ की लागत से बने इस पुल के अप्रोच रोड के टूटने का हंगामा बना हुआ है। महज़ 29 दिनों में ही धडाम होकर अप्रोच रोड टूट पड़ी। लोगो ने ताने देना शुरू कर दिया है कि एक महिना भी झेल न सका और पुल टूट गया। भाई क्यों गलत बात बता रहे है। मैं कह रहा हु न कि अप्रोच रोड टूट गई है। बात तो आपकी भी ठीके है भाई बस तनी मनी डिफ़रेंस के साथ है। आपो ठीके कहत बानी कि अप्रोच रोड भी त पुले का हिस्सा होला। बस तनी मनी डिफरेस ई बा की ओकरा के अप्रोच रोड कह कर पुलवा से तनिक अलग कर देहल जाला।
बहरहाल, हम मुद्दे की बात पर आ जाते है। बिहार के गोपालगंज स्थित सत्तरघाट पर बड़ी लागत और बड़ी चाहत के साथ एक पुल का निर्माण होता है। सुशासन बाबु के इस पुल की अप्रोच रोड महज़ 29 दिन भी नहीं झेल पाती है और टूट जाती है। पहले से ही मीडिया ने जैसे कटिया फंसा रखा था क्योकि भाजपा को इस राज्य में चुनाव लड़कर बड़े भाई की भूमिका गठबंधन में निभानी है। तुरंत नितीश की नीतियों को लेकर बहस शुरू हो जाती है। सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश तुरंत होती है। भाई हो भी क्यों न, इतनी बड़ी लागत के बाद इसका नतीजा इस तरीके का आये तो अफ़सोस सबको होगा। जमकर हंगामा हो रहा है।
बस मेरी समझ में ये नहीं आया कि आखिर हंगामा क्यों बरपा है भाई ? या फिर इतना सन्नाटा क्यों है मेरे भाई ? आखिर जिस राज्य की पूरी व्यवस्था ही टूटी हो उस राज्य में पुल की अप्रोच रोड टूट जाने के बाद ये आखिर कैसा हंगामा है। बिलकुल सही कहा है। राज्य की व्यवस्था ही टूटी हुई है। वरना आप बताये दुनिया में कोई ऐसी जगह है जहा 3 वर्ष का ग्रेजुएशन कोर्स पांच साल में पूरा होता हो। तीन साल में जिस डिग्री को पा लिया जाता है उस डिग्री के लिए पांच साल इंतज़ार करना क्या व्यवस्था के टूटने का एक बड़ा उदहारण नही है।
परीक्षा समय पर नही होती है। परीक्षा हो जाने पर भी रिजल्ट समय पर नही आत है। क्या नवजवान अब छाती पीट रहे है? नहीं क्योकि व्यवस्था ही ऐसी ही है। एक कालेज के चुनाव में खुद को सबसे बड़ा दल कहने वाला राजनैतिक दल अपनी पूरी ताकत झोक देता है कि स्टूडेंट यूनियन के हमारे पदाधिकारी जीते। आखिर क्यों ? क्योकि यहाँ के नेताओं को पता है कि रोज़गार राज्य में किस स्थिति में है, आखिर रैलियों में भीड़ कहा से इकठ्ठा होगी। उनकी कैम्पेनिंग कौन करेगा ? व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान उनके अन्दर नफरतो को जिंदा रखे हुवे है। चुनावों के समय ये काम आती है। आप बताये किस संगठन ने इसकी मांग उठाई कि परीक्षा समय पर हो।
प्रवासी मजदूरों के लिए खुद को असहज महसूस करती बिहार की व्यवस्था से लेकर चमकी बुखार में खुद को बेबस समझती व्यवस्था से आप इससे अधिक क्या उम्मीद कर सकते है। अनुभव की कमी से विपक्ष मुद्दों की लड़ाई तो लड़ता नही है। बल्कि सही पोस्ट पर भी उनको मुह की खानी पड़ती है। अब बताये कहा है व्यवस्था। आखिर चुनावों के वक्त ये बड़ी भीड़ के रूप में तब्दील लोग काम ही तो आयेगे। उनको वोट दिलवाने से लेकर देने तक का काम कैसे होगा।
कोरोना काल में जहा पूरी दुनिया कोरोना से लड़ रही है। वही हम चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे है क्योकि हमको मालूम है कि इससे बेहतर और कोई वक्त नही होगा। पांच किलो गेहू के साथ कोरोना से लड़ने वाले राज्य को चुनाव पहले लड़ना है। क्या हाल रहा है चमकी बुखार से लेकर कोरोना के इस समय में अस्पतालों का, किसी से छुपा नही है। डाक्टर ट्राली से बैठ कर आ रहे है। अस्पताल में पानी घुसा हुआ है। इलाज क्या है ? सिस्टम पर सवाल उठाया तो शायद आपको देश द्रोही का तमगा मिल जायेगा। विपक्ष शांत बैठा है। खुद की जोड़ तोड़ की सियासत को सम्भाल नही पा रहा है तो फिर एक पुल की अप्रोच रोड पर आप किस तरीके से सोच सकते है कि टिकी रह सकती है।
आप देखे जाकर क्या स्थिति है। रोज़गार की मांग क्या कही है। प्रदेश के प्रवासी मजदूर आज वापस आ चुके है। यानी बेरोज़गारी अपने चरम पर है। आर्थिक रूप से कंगाली के कगार पर गरीब तबका है। पांच किलो गेहू पर जीवन जीने को तैयार है क्योकि चुनाव है साहब। सरकार को चुनाव लड़ना है। विपक्ष की कोई सुनता नही है तो फिर विपक्ष गाना गाना शुरू कर दे। कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही सही लोग सुनेगे तो। विपक्ष सवाल कहा उठाता है ये भी आप देखे, ट्वीटर पर पोस्ट करके। सदन के पटल पर यही विपक्ष क्यों नही सवाल उठा रहा है। फिर उसके ऊपर तुर्रा ये कि कोई सुनता ही नही है। तो इससे बेहतर तो होगा कि बढ़िया गज़लों के कलेक्शन पोस्ट करे। लोग सुनेगे और बड़े चाव से सुनेगे।
फैज़ अहमद फैज़ की ग़ज़ल लाजिम है कि हम भी देखेगे, ऐसे मौको पर सुना जा सकता है। आधी अधूरी क्रांति की बात किया जा सकता है। मगर सबके बीच से चुनाव आएगा। फिर एक ही बात दिखाई देगी। गरीबो की थाली में पुलाव आ गया, वो देखो गुरु चुनाव आ गया। चुनाव लड़ने में नेता व्यस्त है। और जनता गेहू की लाइन में व्यस्त है। बेरोजगार अखबारों में आवश्यकता है देखने में व्यस्त है। वक्त मिला तो व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी का ज्ञान लेने में व्यस्त है। अब चुनाव आ रहा है। व्हाट्सएप ग्रुप बनना शुरू हो चुके है। थोड़े वक्त के बाद अब मुस्लिम विरोधी मीम भी आने शुरू होंगे। नफरतो की सियासत होगी। पोलिंग होगी। ताजपोशी होगी। सब कुछ अगले पांच सालो के लिए ठंडा हो जायेगा। फिर वही प्रवासकाल का इन्तेजार कि कोरोना काल खत्म हो और वापस परदेस में जाकर मजदूरी करे।
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