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पत्रकार विक्रम जोशी हत्याकांड पर तारिक़ आज़मी के मोरबतियाँ – डीजीपी साहब कुछ भी कहे, होता तो वही है जो दरोगा जी चाहते है

तारिक़ आज़मी

गाज़ियाबाद का वो पत्रकार, नाम तो सुना होगा अब आपने। पत्रकार जिसने अपराधियों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई थी। अरे वही पत्रकार विक्रम जोशी, जिसकी बच्चियों के सामने उसको उन्ही अपराधियों ने गोली मार दिया था। जी, सही याद आया। पत्रकार था न भाई। कलम चलाना जानता था। बड़ा भरोसा रहा होगा उसको पुलिस तंत्र पर। स्थानीय चौकी इंचार्ज यानी दरोगा जी पर। उसने आवाज़ उठाने की जुर्रत कर डाली, और नतीजा देखा आपने। कैसे सरेराह उनकी बच्चियों के सामने ही जालिमो ने उस पत्रकार को गोली मार दिया। पत्रकार था न साहब, हिम्मत थी। गोली खाकर भी अपनी ज़िन्दगी की जंग ३२ घंटो के करीब लड़ता रहा। मगर आखिर हार ही गया वो ज़िन्दगी की जंग। इस बेजान दुनिया को छोड़ कर रुखसत हो गया।

वो बहन जिसने उसकी कलाई पर राखी बाँधी थी, उसने राखी का फर्ज निभा दिया। खुद की जान दे डाली और अपनी मासूम भांजी के साथ छेड़खानी कर रहे अपराधियों के खिलाफ आवाज़ उठाई। एक तहरीर भी दिया। दरोगा जी पर बड़ा भरोसा रहा होगा उसको। आखिर कलम और खाकी का चोली दामन का रिश्ता जो है। उसने समझा होगा कि दरोगा जी तो अपने है। मेरी समस्या समझेगे। अपराधियों को उनके किये की सज़ा दिलवायेगे। मगर उसकी यही मासूमियत तो उसकी जान ले बैठी। उसको क्या पता था कि पुलिस चौकी में उसको इन्साफ नही मिलगा, बल्कि अपराध के खिलाफ आवाज़ उठाने का तमगा मिलेगा वो भी सीने पर।

सरेराह उसको अपराधियो ने गोली मार दिया। वह भी उस वक्त जब वह अपनी मासूम बच्ची को घुमा रहा था। एक बाप की उंगली पकड़ कर मासूम बच्ची खुद को महफूज़ महसूस करती है। मगर उस बच्ची को क्या पता था कि उसके पापा खुद महफूज़ नही है। बल्कि उनकी जान जाने वाली है। मासूम बच्ची के सर से बाप का साया उठ गया। “उंगली पकड़ के तूने, चलना सिखाया था न, दहलीज़ ऊँची है पार करा दे।” अब इस लफ्ज़ को वो मासूम बच्ची किससे कहेगी। आखिर किसकी उंगली पकड़ के चलेगी। कौन उसको घुमायेगा। पापा तो चले गए। उस मासूम के सर से बाप का साया उठा गया। बाप की दौलात नही, बल्कि उसका साया और अहसास ही बहुत होता है।

बहरहाल, दरोगा जी प्रकरण में सस्पेंड हो चुके है। उनके खिलाफ जांच भी हो रही है। थोड़ी सी मेहनत और थोडा सा वक्त जाँच के बाद दरोगा जी के बदन पर फिर वर्दी रहेगी। कोई न कोई चौकी थाना मिल ही जाएगा। अभी नहीं दो चार महीने या फिर साल के बाद तो मिल ही जायेगा। उनकी ज़िन्दगी फिर से ट्रैक पर आ जायेगी। वैसे भी ट्रैक पर ही होगी ज़िन्दगी। वो बच्चो के साथ अपने खेल रहे होंगे। परिवार को पूरा समय दे रहे होंगे। उनके बच्चे पापा पापा कहकर उनके आसपास खूब खेल रहे होंगे। इश्वर न करे उन बच्चो की ख़ुशी को किसी की नज़र लगे। मगर दरोगा जी को शायद विक्रम जोशी के बच्चे याद नही आते होंगे। एक लापरवाही और फिर सब कुछ उन बच्चो के लिए खत्म हो गया।

खैर साहब, मुकदमा दर्ज हो चूका है। आरोपियों की गिरफ़्तारी भी ज़बरदस्त तरीके से हुई है। हाईटेक केस का खुलासा पुलिस कर चुकी है। आरोपी सभी सलाखों के पीछे है। मगर सवाल अभी भी अधुरा है। आखिर दरोगा जी पर सिर्फ सस्पेंशन की कार्यवाही क्या काफी है। उनकी लापरवाही से गई एक जान के लिए क्या आईपीसी कोई प्रावधान नही बताती है। क्या सिर्फ विभागीय जाँच में ही दरोगा जी को सज़ा का प्रावधान हो जायेगा। ऐसी कई जांचे इतने सालो में मैंने देखा है। किस जाँच में आरोपी पुलिस वालो पर कड़ी कार्यवाही हुई है इसको बताने की ज़रूरत नही है।

डीजीपी साहब कुछ कहे, होगा वही जो दरोगा जी चाहेगे

प्रदेश के पुलिस मुखिया पत्रकारों का विशेष महत्व अपने महकमे को समझाते रहते है। लोकतंत्र का मौखिक चौथा स्तम्भ मीडिया यानी पत्रकार। डीजीपी साहब अक्सर दिशा निर्देश जारी किया करते है। अक्सर अधिनस्थो को पत्रकारों से ढंग और तमीज से बात करने और उनकी समस्याओं का त्वरित निस्तारण का निर्देश देते रहते है। मगर होता क्या है साहब ? होता तो वही है जो दरोगा जी चाहते है। एक नहीं हर जिले में कई आपको ऐसे उदहारण मिल जायेगे जिसमे दरोगा जी खुद की कुर्सी और सामने की टेबल का महत्व समझते है। पत्रकार को मुह पर चिकनी चुपड़ी बाते कहते है और उसके पीठ पीछे षड़यंत्र ही रचा करते है।

इसके हर शहर में ही आपको उदहारण मिल जायेगे। कई तो मैंने खुद देखे है। पत्रकारों को दरोगा जी अपना दुश्मन समझते है। उनकी विशेष लिस्ट बनती है। क्षेत्र में जो पत्रकार है पहले दरोगा जी उसको ही निपटाने में तुले रहते है। फलनवा पत्रकार ढीमकानी जगह पर टांग लड़ा गया। उससे उतना नुक्सान हो गया। जुगाड़ करो पत्रकार को ही निपटा दो और जुगाड़ भी तगड़ा वाला। जिस मामले की पत्रकार को भनक न हो पहले अपने इस्पेक्टर साहब के नज़र में डालो कि वो काम उस पत्रकार के कारण हो गया। इस्पेक्टर भी दरोगा जी की ही सुनेगा। थाना जो चलाना है। अब दरोगा जी पहले इस्पेक्टर का कान भरेगे उसके बाद आम जनता और अपराधियों का कान भरना शुरू कर देंगे।

कही भी कोई पुलिस कार्यवाही करेगी क्षेत्र में, तुरंत दरोगा जी अपने पाले हुवे लोगो के माध्यम से कहेगे, वो कार्यवाही केवल इस कारण करना पड़ा क्योकि क्षेत्र के एक पत्रकार ने उसकी खबर कप्तान साहब को दे दिया था। फिर क्या है। क्षेत्र के बाहुबली सभी जानते है कि क्षेत्र में पत्रकार कौन है। पड़े उसके पीछे। कुछ दिनों बाद दरोगा जी पत्रकार की वो दुर्दशा कर देंगे कि उसका घर से निकला दूभर हो जायेगा। लोग उसको शक की नज़र से देखेगे और दरोगा जी की हरी पत्ती आना शुरू हो जायेगी।

कुछ ऐसा ही हुआ होगा शायद पत्रकार विक्रम जोशी के साथ। वरना किसी अपराधी की इतनी हिम्मत कैसे बढ़ जाएगी कि एक पत्रकार को सरेराह गोली मार दे। मगर इसकी जाँच करेगा कौन ? फिर ऐसे ही कोई दरोगा जी अथवा उसके ऊपर के इस्पेक्टर साहब कर डालेगे। अब इस्पेक्टर साहब के कान में पहले से ही दरोगा जी ने पत्रकार के खिलाफ ज़हर भरा हुआ है तो फिर इन्साफ की उम्मीद किससे किया जाए। आखिर विक्रम जोशी की आत्मा को इन्साफ कैसे मिलेगा ? गोली चलाने वाले हाथो को ही सजा मिलकर इन्साफ मिलेगा या फिर जिसने इस हिम्मत को उन अपराधियों एक जिगरे में भर दिया उन हाथो और जबान को भी सजा मिलेगी ? एक नही बल्कि कई विक्रम जोशी ऐसे जद्दोजेहद से गुज़र रहे है। ऐसा नही है कि हर एक दरोगा ऐसे विचारों के है। ऐसे विचारों के चंद मुट्ठी भर दरोगा है। जिनका वर्दी पहने का सिर्फ एक ही मकसद है खुद का स्वहित। अब इनकी पहचान तो विभाग को ही करनी है।

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