तारिक़ आज़मी
मुंबई के उच्च न्यायालय का एक फैसला आया। इस फैसले ने किसी और को नही बल्कि सबसे बड़ा झटका अगर किसी को दिया तो वह है पत्रकारिता। कोरोना के शुरूआती काल में कोरोना को धर्म निर्धारण के प्रयास पर अदालत ने मीडिया को जमकर फटकार लगाई। अदालत ने अपने आदेश में उन सभी ऍफ़आईआर को रद्द कर दिया जो विदेशी जमातियो के नाम पर दर्ज हुई थी। अदालत ने प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों ही मीडिया को जमकर फटकार लगाईं।
अब इस फैसले के बाद कोई टीवी चैनल इसके ऊपर डिबेट करता नहीं दिखाई दे रहा है। वो चैनल्स जो कल तक उन खबरों को विशेष तरजीह दे रहे थे कि मौलाना ने बिरयानी मांगी, मौलाना ने नर्सो को घुरा, मौलाना अर्धनग्न होकर अस्पताल में घूम रहे था, मौलाना ने नर्सो के सामने सुसु किया। समझ नहीं आता है कि मीडिया हाउसेस के इन खबरों के श्रोत क्या थे?
मुझको वाराणसी की ऐसी ही घटना एक याद आती है। वाराणसी के एक अल्पसंख्यक बाहुल्य क्षेत्र में कुछ जमाती कोरोना पॉजिटिव मिले थे। कांटेक्ट ट्रेसिंग का काम चल रहा था। एक प्रतिष्टित अख़बार ने खबर प्रकाशित किया था कि क्षेत्र में जाने वाली मेडिकल टीम पर पानी फेके जा रहे है और छतो से थूका जा रहा है। खबर सूत्रों के हवाले से थी तो खबरनवीसी ने हमारे अन्दर के पत्रकार को भी झकझोर दिया। हम भी उसी दिन दौड़ पड़े दिन भर। मेडिकल टीम से सम्पर्क किया और टीम ने ऐसी किसी घटना से इनकार कर डाला। फिर क्षेत्रीय नागरिको से लेकर पुलिस कर्मियों तक से संपर्क किया। सभी ने इस घटना से इनकार किया।
बहरहाल, घटना पूरी तरह गलत थी। तंजीम बुनकर बिरादरान ने अपना विरोध भी दर्ज करवाया। हमारी खबर के बाद दुसरे दिन सुबह एक अन्य प्रतिष्टित अख़बार ने इस खबर को अफवाह करार दिया। समझ नहीं आता कि एक दिन पहले जिस खबर के सूत्र थे वो आखिर खबर कहा गई। कहा गई सूत्रों की वो जानकारी। क्या खबर केवल और केवल एक वर्ग विशेष को टारगेट करने के लिए थी ? आखिर कैसे किसी ऐसी खबर को स्थान मिल जाता है जो समाज के दो हिस्सों में तकसीम करने की कुवत रखती है।
इस फैसले के बाद जो पत्रकार उस पूरी श्रृंखला को जोड़ रहे थे, इस फैसले के बाद आखिर वो अपने समझदार बच्चो के सवालों का जवाब कैसे देंगे। क्या कहते होंगे अगर उनके बच्चे इस मुताल्लिक सवालात पूछ ले। आखिर खुद समाज का हिस्सा होते हुवे किसी के चरित्रहनन करने की हिम्मत इंसान को कैसे हो जाती है। आखिर इस 24×7 परोसे जा रहे झूठ से क्या मूल मुद्दे खत्म हो जायेगे ? क्या रोज़गार, अर्थव्यवस्था की समस्याये हल हो जाएगी। इतना झूठ परोसकर आखिर किस तरीके से अपने बच्चो और परिवार के अन्य सदस्यों के सामने जाते होंगे।
मुम्बई हाईकोर्ट ने ऐसे लोगो को जमकर लताड़ जगाई है। अब सवाल ये उठता है कि इस सबके बाद भले कोई न्यूज़ एंकर इस मुद्दे पर बहस नही करता दिखाई दे रहा है मगर क्या इससे मरकज और तबलीगी ज़मात पर हुए उस बौद्धिक आक्रमण का हरजाना पूरा हो जायेगा ? विदेश से जमात में आए मौलानाओं को अपराधी बनाकर जेल में ठूसा गया, उनके चरित्र पर विभत्स आक्रमण किए गये। शर्मनाक आरोप लगे थे, पुरे एक महीने ये सीन चल रहा था। अजीब स्थिति थी। ऐसा लग रहा था कोरोना का धर्म परिवर्तन हुआ हो। एक धर्म विशेष के साथ जोड़ा जा रहा था। क्या इस मामले में एक धर्म विशेष से जोड़ कर दिखाने के लिए अब कोई शर्मिंदा होगा ?
इन सबका नतीजा क्या निकल कर सामने आया। जब देश कोरोना से जंग के लिए तरीके सोचता तो टीवी पर किसी के घर में पोलीथिन में थूक कर पालीथीन फेकती महिलाये दिखाया जा रहा था। जब मुल्क में इस पर बहस होनी चाहिए कि इस लॉक डाउन के बाद जो अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा तो उस वक्त बहस इस पर हो रही थी कि मौलाना की नंगी टांग कैसे दिखाया जाए कैसे छुपाया जाए। समाज अजीब रास्ते पर चल पड़ा।सब्जी वालो से उनका आधार कार्ड देख कर सब्जी बेचने से रोका जाने लगा। यही नही वीडियो बना कर ऐसी घटनाओं को सोशल मीडिया पर जमकर वायरल करके इस नफरत की खेती में खाद डाल सिचाई हो रही थी।
जब बहस का मुद्दा मौजूदा प्रवासी मजदूरो की समस्याओं पर होनी थी तो उस वक्त किसी कलीम को किसी एक गली में सब्जी बेचने से रोका जा रहा था। सब्जी बेच रहा कोई अजीजुर्रहमान हिन्दू बहुल क्षेत्र से भगाया गया तो किसी मुस्लिम सब्जी वाले का आधार कार्ड चेक करके उसके साथ मारपीट की गयी। सबसे घिनौना प्रयास तो वो था जब एक वीडियो में प्लेट चाट कर रखते दिखाया जा रहा था। जमकर वो वीडियो वायरल हो रहा था। वो तो काफी बाद में इसका खण्डन हुआ और बताया गया कि ये बोहरा समाज की एक परंपरा है। मगर एक समाज की परंपरा को नफरत के तौर पर परोस दिया गया।
क्या इसके ऊपर कोई डिबेट करेगा कि जब हमको इस मर्ज़ से लड़ना था तो हम बेमतलब की बातो पर बहस कर रहे थे। सोशल मीडिया पर इसको जमकर वायरल किया जा रहा था। आज उसका नतीजा है कि पूरी दुनिया में जब कोरोना नियंत्रण में आता दिखाई दे रहा है तो भारत में आज भी दो दिनों में सवा लाख संक्रमित मिल रहे है। मृतकों की संख्या 60 हज़ार के करीब पहुच चुकी है। मगर मीडिया अभी भी उसी बेमतलब की बहस का हिस्सा बन बैठा है जिसका अभी कोई मतलब नही बनता है। जनता तो इसी मुगालते में रह गई कि कोरोना जमाती है। मरकज़ से निकल कर सामने आया है।
वक्त अभी भी है कि हम चेते और मुल्क के बारे में सोचे। बहस बिलकुल हो मगर सांप्रदायिक नही होनी चाहिये। अभी भी वक्त है मीडिया को जागना होगा। ये ऐसा समय है जब किसी और की नहीं खुद मीडिया की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है। हो सकता है ऐसे बहस के लिए टीआरपी मिल जाए। थोडा विज्ञापनदाता खुश हो जाए। मगर समाज की ज़िम्मेदारी भी हमारी है।
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